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________________ ७६ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन जब तक पूर्ण प्रेम मे दोनो एक नही हो जाते ।'' जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे स्त्री-पुरुष अथवा प्रेमी-प्रेमिका के परस्पर आकर्षण को काम तक ही परिमित न कर उसे उत्तरोत्तर इन्द्रियेत्तर विषय के रूप मे स्वीकार किया है। लौकिक जीवन मे ईश्वरीय आस्था जैनेन्द्र की दृष्टि मे ईश्वर मात्र व्यक्ति की आवश्यकतागो का ही पोषक नही है । वह विज्ञान की विभीपिका से सत्रस्त मानव के लिए एक समाधान हे । विज्ञान ने मानव को चाद तक पहुचा दिया है, किन्तु पडोसी के दुख-दर्द का अनुभव करने की प्रेरणा नही प्रदान की है। बोद्विकता की प्रगति के साथ-साथ हादिकता शुष्क होती गई है। हृदय से शून्य व्यक्ति सदैव अभावग्रस्त बना रहता है। वह अपने प्रभाव को नशीली वस्तुओ के सेवन से पूर्ण करने का क्षणिक प्रयास करता है। उसकी पशुता समर्पण के अभाव मे अहता को पुष्ट करती जाती है । एक ओर विज्ञान के तर्कवाद दूसरी ओर अथलोलुपता भी आधुनिक सभ्यता का दुरसाध्य रोग है । धन के पागलपन ने ही प्राज समाज में भेद भाव की भावना भर दी है। वस्तुत जैनेन्द्र की श्वर रागाची विचारधारा आधुनिक युग के लिए अत्यन्त ही उपयोगी है। भौतिकता की नकाचौंध मे उन्हे ईश्वर एकमात्र प्रवतम्ब प्रतीत होता है। जैनेन्द्र की ईश्वरीय निष्ठा ही सामाजिक प्रेम और व्यवस्था का साधन है । वे प्राणी मात्र में ईश्वर की कल्पना करते है। अत ईश्वर के समक्ष केवल 'स्व' का विसर्जन ही पर्याप्त नही है । आत्मा की परमात्मा से एकाकार होने मे ही मुक्ति नही है, वरन 'स्व' का त्याग 'पर' के हेतु परमावश्यक है। परहित ही उनके जीवन का मूलादर्श है। ईश्वर की पाप्ति अर्थान मब मे अपनी प्राप्ति । इस प्रकार स्व पर मूलक भेद मिट जाने पर ही ईश्वर की प्राप्ति सभव है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रेम अन्य के सत्कार और स्व के विमर्जन में ही फलित होता है । अपने को मिटाने में ही जीवन की सार्थकता है। जैनन्द्र प्रतिदिन के जीवन इस प्रकार की विनत भावना के मूल में ही त्यक्ति की प्राप्तिकता के दर्शन करते है। जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में तथा राजनीतिक, आर्थिक १ डा० राधाकृष्णन् 'रविन्द्र दशन', दिल्ली, १९६३, पृ० ५६-अनु० ज्ञान वती दरबार । २ जैनेन्द्र कुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० २६ । ३ जैनेन्द्र कुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', पृ० ४७ । ----- • प्रेम से बडी आस्तिकता और क्या है ? उस प्रेम के रूप में प्रतता और एकात्मकता का प्रमाण क्या हमारे ही भीतर गभित नही पडा है।'
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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