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________________ ७२ जेनेन्द्र का जीवन-दर्शन जाती है। भक्त ग्रपनी भावना के अनुकूल ही ईश्वर को रूप पदान करता है । तुलसी, सूर की भाव सघनता राम, कष्ण को अनायस ईश्वर बना देती है, परन्तु यदि वे तर्क पद्धति से ऐसा करना चाहते तो सभव न होता । वस्तुत जेन्द्र अपने साहित्यिक क्षेत्र मे दार्शनिक होने के साथ ही साथ भक्त और ईश्वर के अनन्य उपासक भी है । भक्तिकालीन सूर, मीरा और तुलसी के सदस्य उनका हृदय भी प्रात्मसमर्पण के लिए विकत होता हुआ दृष्टिगत होता है । 'साधु का हठ' कहानी दृष्टि मे साधु की अतिशय विनम्रता और ग्रहशून्यता जेनेन्द्र के विचारो की पुष्टि के लिए पर्याप्त है । जैनेन्द्र के अनुसार आधुनिक विज्ञानवादी युग मे सगुण साकार ईश्वर के प्रति निष्ठा का प्रभाव हे । बुद्धि की शुष्कता मे ग्रह का प्राचुर्य हे । सत्य की खोज मे हम ग्रह का ही पोषण करते है । यही कारण है कि ग्राज आस्थाहीन समाज निरन्तर अनीश्वरवादी होता जा रहा हे। जीवन में रही भी स्थिरता नही है । सवत्र समस्या प्रोर उलभाव हे । जैनेन्द्र के अनुसार सबका समाधान ईश्वर की पाप्ति में ही सम्भव है । उपासना के द्वारा पत्थर की मूर्ति में भी ईश्वरीय शक्ति र स्वरूप के दर्शन होते है । किन्तु मूर्ति की उपासना लिए तपरता निवास है । सन्त्री श्रद्धा और तत्परता के अभाव मूर्ति पूजा खातामा रह जायगी । पूजा का वास्तविक प्रयोजन नही पूरा हो सकेगा । एसी स्थिति मे नास्तिक की कमशीलता उसे प्रास्तिक से अधिक श्रेणी का उपासक बना देगी । " जैनेन्द्र की दृष्टि मे यदि जडमूर्ति की उपासना करने वाला व्यक्ति भक्त हे तथा ईश्वर के योग्य हे तो यत्रो के साथ अपनी प्रयागशाना में सतत् रत रहने वाला वैज्ञानिक भी किसी उपासक से कम नही है । किन्तु वैज्ञानिक की उपासना मे समपरण भाव नही जाग्रत होता । जैनेन्द्र के अनुसार यदि वैज्ञानिक मे 'स्व' सेवन की जगह समर्पण की वृत्ति मे तो वह भी प्रास्तिक से कम नही है | किन्तु देखा यह जाता है कि उपास्य के समक्ष उसका सिर नही भुकता, प्राथना नही होती, भक्ति नही फूटती । वस्तुत ईश्वर की प्राप्ति समपरण में ही सम्भव हा सकती है । निष्कर्पत यदि यह कहे कि जैनेन्द्र का व्यक्तित्व भक्त, साहित्कार और दार्शनिक का समन्वित रूप हे तो अतिशयोक्ति न होगी । वे स्वयं को ईश्वर की विराटता के समक्ष पराजित हुआ-सा पाते है । अपनी इस पराजय को वे अपना १ जैनेन्द्रकुमार 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', दिल्ली, १६५३, प्र० स० पृ० १६२-१६३ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५१ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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