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________________ ४८ जनेन्द्र का जीवन-दर्शन कि ग्रह के लिए अनिवार्य है, तब धारणात्मक विभिन्न विनिया नाना तत्व मय जगत् उतना अनिवार्य नही है। सक्षेप में जीवन मे लोनिका सामाजिक की अपेक्षा से अखिल अखण्ड की अपेक्षा अधिक सगत पोर र वाम गकर है।' खण्डता में स्थूल जगत की लीला दृष्टिगत होती है, किन्तु हरपना अपवा लोक मे व्यक्ति काल-खण्ड से ऊपर उठकर अखित को अपना लेना चाहता है। __ जैनेन्द्र के दाशनिक विचारो पर सत खतील जिब्रान का बहुत अधिक प्रभाव पडा है । खलील जिब्रान भी कात को प्रेम की भाति अविभाज्य और असीम मानते है। उनके अनुसार कालातीत अतर्वामी को मातातीत जीवन का ज्ञान रहता है। ___जैनेन्द्र का साहित्य सत्य की खोज और उसकी अभिव्यक्ति का ही प्रतिफल है। सत्य दृष्टि-सापेक्ष हो सकती है, किन्तु मूलत उसकी प्रकति निरपेक्ष है। शाश्वत सत्ता का बोध अनुभूति द्वारा ही हो सकता है। बुनि 'अनन्तता पोर अखण्डता में प्रवेश करने में असमर्थ होती है। श्रद्धा निगवे गम्मत हो गती है, जिससे कि अह अहा न हो जाये, किन्तु उसका अस्तित्व तक म निमा हो जाता है । जैनेन्द्र परम आस्तिक विचारक है। वे सत्य काय सार मक प्राधार पर ग्रहण करने का प्रयास करते है। ऐसी स्थिति 2.107 गी मत विशेष से हेतु प्राग्रह नही होता । यही कारण है कि नापार नही करते और न ही अपने मत की पुष्टि के लिए यूक्ति गो का यह ही रचत। जैन धर्मावलम्बी होने के कारण स्यादवाद से बहुत अधिक प्रभावित है। साइन्सटाइन की रिलेटिविटी का सिद्धात भी स्यादवाद का ममा । । । चर्म में किसी भी मत का खण्डन नही किया जाता । पत्येक विचार दार' मा मोर समय सापक्ष होने के कारण सत्य हो सकता है, किन्तु उगही गार्वभौम मत्य के रूप मे स्वीकार नही किया जा सकता। जैनेन्द्र भी अपनी हिमान नीति के कारण प्रत्येक मत का आदर करते हे पोर अपने विचारो का किसी पर प्रारोपण नही करते । राजनीति, धर्म, समाज, दर्शन, मनोविज्ञान आदि सभी क्षेत्र में वे नितान्त व्यावहारिक दृष्टिकोण को स्वीकार करते है । राजनीति में समाजवाद, पूजीवाद, साम्यवाद आदि विभिन्न मतवाद प्रचलित है, जो कि स्वयमा अपूर्ण है। जीवन प्रखण्ड इकाई है। जीवन की अखण्डता से असयुक्त होकर कोई भी सिद्धात सत्य का साक्षात्कार कराने में असमर्थ सिद्ध होता है। जैनन्द्र १ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', दिल्ली, प्र० स०, पृ० ५७५ । २ खलील जिब्रान 'जीवन-दर्शन (अनु० सत्यकाम विद्यालकार) दि प्रोफेट' दिल्ली (सशोधित सस्करण १६५८), पृ०स०६६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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