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________________ जनेन्द्र का जीवन दर्शन 'प्रह विसजन' मे ग्राम समर्पण की भावना विमान हे बिना यात्मसमारण के पात्मोपलब्धि असम्भव है। जैनेन्द्र समस्त चराचर जगत को विनत भाव मे रामपित होते हा ही पाते है। 'स्व' का 'पर' में समाहित हा जाना प्रथवा 'पर' को 'स्व' में मिला देना ही उनके विचारो का मू। र है। 'मे कूछ नही है, जो कुछ है सब वही है, ऐसी भावना व्यक्ति कामगार के माया प्रपच म दूर कर प्रात्मोन्मुख बना देती है । जैनेन्द्र के अनुसार यदि पति के मन में यह भाव उत्पन्न हो जाए कि प्रकृति का समस्त वैभव उगने हिताय है, गब उसके प्राचीन है तो उसकी प्रगति अवरुद्द हो जाती है। प्रगति का मुत गपूणता के बोध में ही निहित है । 'मै कुछ नही ह म सत्य का बोध होने पर ही व्यक्ति पूगता के लिए प्रयत्नशीत होता है । गात्मा का परमात्मा मे माक्षात्कार होने की स्थिति ही पूणता की सूचक है। किन्तु जनेन्द्र का विश्वास है कि जीवन सतत् यात्रा है।' व्यक्ति का मग्बन्ध यात्रा से होना चाहिए, मजिल से नही। माग के कष्टो को सहता हमा त्यति निरन्तर आत्मोन्मुग्वी होता जाता है। अन्ततम मे ईश्वर : गिवा कोई नही है । जनेद के अनुसार "ग्रह एक है, उसके भी मम मू. में गाय । पगिल मग मित निन्दु पन उठा है तो उसकी यथाथता गोरा ग सरते उतरत क्या हमे उग निखित मे ही पान जाना नही मिलेगा ।'' की प्रात्मनिष्ठा में परम अन्तरग परमेश्वर की प्राप्ति का नो हाना है, उगम अचतन, अवचेतन आदि की ग्रन्थि नही होती। जैनेन्द्र गत्य की पारित कहतु शब्दो मे नही भटकते । उनके अनुसार शब्द बीच के पडाव है, उनमें ही भटक जाना लक्ष्य का निषेध करना है । जैनेन्द्र पात्मनिष्ठ होकर वस्तू जगत् की उपेक्षा नही करते । जिस प्रकार उनकी समष्टि को ग्रहण करने की भावना स्वत ही व्यष्टि को पीलिप्रदान कर देती है। उसी प्रकार पात्मनिष्ठा मे वस्तुनिष्ठा गनिवाय रप में स्वीकृत हे । वस्तु-जगत की अनेाता आत्मोन्मुखी होकर एकता की ओर उन्मुख हाती है । इन्द्रिया ही वह कडी है जो आत्मता को वस्तुता में जोडने में सक्षम होती है। वस्तु जगत की उपेक्षा मे जीवन की कल्पना ही असम्भव हो जाती है। वस्तृत जैनेन्द्र की आत्मोन्मुखता एक ओर ईश्वर की प्राप्ति मे महायक है, दूगरी पोर वस्तुजगत के भेद-भाव को दूर कर अभेदत्व अथवा प्रद्वैतता की और उन्मुख करती है । अखण्डता की प्राप्ति ही जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का परम लक्ष्य है। १ जैनन्द्रकुमार कल्याणी', प्र० स०, दिल्ली, १९५६, पृ० १४-१५ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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