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________________ जेन्द्र का जोवन-दर्शन भी पटकाने भी लगती है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे कम में मधिक भाग्य पर निशास करते है । किन्तु यह सत्य है कि वे भाग्य-विश्वासी होते हुए भी कम की उपेक्षा नही करते । जैनेन्द की अति भाग्यवादिता के मल मे ईश्वरीय प्रास्ता ही विद्यमान है । उनके अनुसार 'म' (व्यक्ति) गदेव गपूणता म पूरगता की प्राप्ति की ओर प्रयत्नशील रहता है। जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति भाग्य के समक्ष अत्यन्त विना हा जाता है। उरा निवगता को वह नहुत विनत होकर स्वीकार करता है। उगके गन्तर मे यह बोल होता हे कि 'जब वह है, तब में कहा ? तर गहार कगा।" जनेन्द्र व्यक्ति को प्रव्यक्त के व्यक्तीकरण का माध्यम मानते हैं। उनके अनुसार वह (व्यक्ति) भाग्य के हाथ मे सपने को छोडकर भी निरन्तर कमगील रहता है। जैनेन्द का परमादर्श जीवन की सतत् यात्रा मे अभेद प्रशवा प्रभिन्नता की प्राप्ति करना है। यद्यपि व्यक्त समार की व्यावहारिक पृष्ठभूमि मे नितातोपत्र सभव नही, गत ते द्वैत के मध्य प्रेम का कर भेदत्व की स्थापना करना चाहते है, जिसम गात्मानन्द का पालिसके । गभेद जायचा पण 'ताजनेन्द्र के जीवन-दशन IT वह माधार है, जिन पर नहाने अपन मस्त चिन्तन को साहित्य के द्वारा अभि पक्त है। जनेन्द्र के माहित्य मे उनकी जीवन के प्रति अटूट प्राग्या की भिव्यक्ति हुई है। जीवन में लगन, निष्ठा, दायित्व, प्रेम, सोहाद्र आदि का मह-र उनके उपन्यास ओर कहानियो मे स्पष्टत दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र के पास समस्त मानवीय गुणो का प्रतिनिधित्व करते हे । दया गौर गहानुभूति की भावना उनके पानो मे कूट-कूट कर भरी हुई है। 'लात सरोवर' में एल. माधु निम्बाथ भाव से कोढी वेश्या की सेवा करता है। उसे सामाजिक मान-गम्मान का भय नही होता । वह बडी लगन और निष्ठा के साथ समाज द्वारा तिरस्कृत नारी की सेवा करता है। जैनेन्द्र की रचनाओ मे त्याग की भावना विशेष रूप से दृष्टिगत होती है । 'परख' मे कट्टो का त्याग और निश्छल सेवा, प्रेम का आदर्श अतुलनीय है। जैनेन्द्र ने सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि से चिरन्तन प्रश्नो के भीतर प्रवेश किया है। जीवन के सत्य के पति वे सतत् जिज्ञासु के सदृश्य गदैव जगत और जगत की १ प्रभाकर माचवे जैनन्द्र के विचार', प्र० स०, १६२७, पृ० २४० । २ जैनेन्द्र कुमार 'लाल सरोवर', जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया मपाल शिवनन्दनप्रसाद, प्र० स०, दिल्ली, १६६६, पृ० २४५ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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