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________________ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन १ साम्यवादी दृष्टि स्कीकाय नही हे । उन्होने व्यक्ति की सापेक्षता मे ही जीवन के विविध प्रगो की सार्थकता स्वीकार की है । व्यक्ति की अन्तर्निष्ठ प्रवृत्तियो के सत्य का उद्घाटन करने के लिए उन्होने मनोविज्ञान का सहारा लिया है । वस्तुवादी लेखक वाद्य परिस्थितियो के सन्दर्भ मे ही अपने पानी के चरित्र और व्यक्तित्व का निर्माण करते है, किन्तु जैनेन्द्र आत्मपरक साहित्यकार है । उन्होने व्यक्ति के मनोविज्ञान के सहारे उसके कार्य-व्यापारो के स्रोत का पता लगाया है । राजनीति, अर्थशास्त्र उनके द्वारा बहुत स्थूत रूप मे अभिव्यक्ति प्राप्त करते हे । व्यक्ति जीवन की समग्रता, अर्थ राज, नम प्रादि की सापेक्षता मे ही सम्भव है, किन्तु व्यक्ति क्या है, उसकी प्रवृत्तिया उसके व्यक्तित्व के निर्माण तत्व तथा अन्तर्द्वन्द्व आदि बातो को जाने बिना किसी भी साहित्यकार की समस्त अभिव्यक्ति महत्वहीन ही रह जाती है । क्योकि साहित्य समाज का ही दर्पण नही है, वह व्यक्ति के अन्तद्वन्द्व की अभिव्यक्ति का साधन नही है । सागर की विराटता अथवा उसकी उठती- गिरती तरगे ही उनकी महानता की सूचक नहीं है । उसकी महानता का रहस्य उसके अन्त रात मे अवस्थित है, जो कि गन्धन के परिणामस्वरूप ही ज्ञात किया जा सकता है । उसी प्रकार व्यक्ति जोवन का सत्य घटनाओ मे न होकर मन के अन्तद्वन्द्व और ग्रात्मलोभ में विद्यमान रहता है । मनोविज्ञान के द्वारा जैनेन्द्र ने व्यक्ति को उसकी प्रवणता मे जानने का प्रयास किया है । अन्तर और वाह्य दोनो का अन्योन्यासित सम्बन्ध हे । बाह्य जीवन ग्रन्तद्वन्द्व के सहारे ही परिचालित होता है । सामान्यत सुधारवादी लेखको ने वाह्य परिस्थिति को ही व्यक्ति के नरिन का निर्माण तत्व माना है, किन्तु जैनेन्द्र की कथा मे व्यक्ति के चारित्रिक विकास की परिणति न होकर द्वन्द्वाभिव्यक्ति ही है । उनके पात्र प्रेमचन्द आदि उपन्यासकारो के सदृश्य उत्तरोत्तर अपने चरित्र का विकास करते हुए नही प्रतीत होते । यद्यपि जैनेन्द्र के पानी का जीवन अनन्त सम्भावनाम्रो ग पूरा है, उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध मे कोई पूर्व निर्णय नही प्रस्तुत किया जा सकता, किन्तु उनकी विशेषता अन्तर्द्वन्द्व द्वारा 'स्व' की अभिव्यक्ति करने मे है । यही कारण है कि जैनेन्द्र के उपन्यास चरित्र प्रधान न होकर व्यक्ति प्रधान है । जैनेन्द्र ने व्यक्ति को उसके भूत और वर्तमान की सम्पूति मे देखा है । जीवन की वर्तमानता के मूल मे उसका व्यतीत जीवन समाहित रहता है । व्यक्ति ३ १ जैनेन्द्र कुमार 'कहानी प्रनुभव और शिल्प', दिल्ली, १९६७, प्र० श०, पृ० १३० ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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