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________________ ३६ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन स्थितियो को देखने और उन्हे साहित्य के द्वारा अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है । एक ओर उन्होने अर्थ सम्बन्धी संद्रान्ति विवेचन अपने विचारात्मक निबन्धो द्वारा प्रस्तुत किया है । 'समय और हम' परिपेक्ष, प्रश्न और प्रश्न' आदि वैचारिक निबन्ध तथा प्रश्नोत्तरो मे श्रम, उत्पादन, वितरण तथा विभिन्न वादो की प्रार्थिक नीति का विवेचन किया है, दूसरी ओर उपन्यास गोर कहानियो द्वारा अर्थ के कारण जीवन मे उत्पन्न होने वाली समस्या का प्रत्यन्त व्यावहारिक तथा सवेदनात्मक वरणन किया है । उस दृष्टि से 'अपना प्रपना भाग्य', 'साधु का भेद, चोरी, पत्नी, आदि कहानिया प्रस्तुत की है । वस्तुत लेखक ने अथ को दृष्टि मे रख कर व्यक्ति के जीवन को परखने और उसमे स्वय को आत्मसात करने का प्रयास किया है, किन्तु यह आवश्यक है कि व्यक्ति उसके प्रति निस्पृह रहे । वह प्रपरिग्रही बनकर परहित के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे । जैनेन्द्र ने प्रर्यशास्त्र के समान राजनीति को भी मानव-नीति से सम्बद्ध रूप मे ही स्वीकार किया है । राजनीति व्यक्ति द्वारा निर्मित होती है, अत वह व्यक्ति पर अपना प्रभुत्व नही स्थापित कर सकती । मानव जीवन की व्यवस्था में वह एक हेतु बनकर ही स्थिर रह सकती है। जैनन्द्र के अनुसार स्वाथ की भावना ही व्यक्ति को व्यक्ति में तथा सस्था विशेष म दूर रखती है । 'स्व' के विराजन मे द्वन्द्व का प्रश्न ही नही उठता । जैनन्द्र साहित्य के विचारात्मक पक्ष में राजनीति के विभिन्न आदर्शों की स्थापना और आलोचना की गई है । उपन्यास और कहानियों में उन्होने मानव जीवन से तद्गत करके राजनीतिक नियम, कानून और व्यवस्था की विवेचना की हे । 'जयवर्धन' मे जैनेन्द्र के राजनीतिक विचारो की स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है । उनके अनुसार राजनीति की साथकता इसी में है कि वह धीरे-धीर मानव- नीति की और अग्रसर हो और शासन तथा दण्ड का बाह्य आरोपण स्वय में निरर्थक प्रतीत होने लगे । राज्य सभा प्रथवा कानून को एकाएक समाप्त नही किया जा सकता किन्तु प्रयास इस बात का होना चाहिए कि व्यक्ति स्वशासित हो । शासन के स्थान पर अनुशासन को प्रश्रय मिले ।' 'जयवर्धन' में जैनेन्द्र के विचार भारतीय संस्कृति और प्रादर्शो का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते है । उनके विचारो के मूल मे गाधी की अहिसक नीति भी स्पष्टत दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र के अनुसार राज्य, राष्ट्र १ जैनेन्द्र कुमार ' जयवर्धन', दिल्ली, १६५६, पृ० ७० ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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