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________________ जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका जीव विज्ञान मानव जीवन का प्रारम्भिक ज्ञान हमे जीव-विज्ञान के द्वारा ही प्राप्त होता हे । जीव की उत्पत्ति के अनन्तर ही समाज, धर्म, अर्थ आदि की समस्या उद्भूत होती है । प्रतएव जीव-विज्ञान वह प्रारम्भिक अध्याय है जो हमे जीव और विशेषत मानव प्राणी के विकास का बोध कराता है । ३३ डार्विन पशु योनि से जीव-विज्ञान का आरम्भ मानते है । वे विकास का प्रारम्भ पशुता से करते है, किन्तु जैनेन्द्र जीव वैज्ञानिक नही है, वरन् दार्शनिक है अतएव वे विकास मे भी सत्य की खोज करते हे । जैनेन्द्र के अनुसार विकास की उपरोक्त स्थिति स्थूलत सामाजिक और सत्य है, किन्तु पशुता से और गहरे जाय तो अन्तिम प्राधार मे दिव्यता प्राप्त होगी । विकास का सिद्धान्त उतने आगे नही जायगा । परिणामत मनुष्य को मूलत पशु मान लिया जाता है । जबकि जैनेन्द्र की मान्यता के अनुसार प्रत्येक प्राणी और मनुष्य तो और भी विशेषत दिव्य के आकर्षण से मुक्त नही हो सकता । जैनेन्द्र के अनुसार हिसा की जड मे भी सवेदना है, वस्तुत मूल मे दिव्यता ही है । जैनेन्द्र ने विकासवाद मे, पशुत्व के मूल मे, देवत्व को हिसा मे ग्रहिसा की स्थिति के प्राधार पर स्पष्ट करने का प्रयास किया है । उनके प्रनुसार ग्रहिसा के प्राधार के बिना हिसा भी नही हो सकती । हिसा वह प्रक्रिया है, जिसमे स्वकीय के लिए 'पर' पर प्रहार होता है। यदि स्व के पास स्वकीय न हो तो प्रहार की प्रेरणा समाप्त हो जाय । वस्तुत स्वकीयता का निर्माण ग्रहिसा के प्राधार पर होता है प्रर्थात् पर प्रहार की हिसा मे भी स्वकीयता प्रर्थात् ग्रहिसा की प्राधार स्थिति निवार्य है ।' वस्तुत पशुत्व के मूल मे देवत्व विराजमान है । जैनेन्द्र ने 'जयवर्धन' मे अपने इन्ही विचारो की पुष्टि की है । जय प्राध्यात्मिक व्यक्ति है । वह यह स्वीकार करने में असमर्थ है कि फल बीज से भिन्न हो सकता है । उसका विश्वास है कि -- कभी मानव देवता होता तो इस विश्वास के प्राधार पर कि देवत्व से उसका उद्गम है" उसका दृढ विश्वास है कि 'पशु प्रादि नही है, विकास मे बहुत बाद की कडी है । गुण का, सत् और चित का ग्राविर्भाव वहा से नही है । प्रर टूट गया है और प्रतीति प्राप्त है कि गुण उसके भी गहरे गर्भ मे है ।" 'उनकी दृष्टि मे मनुष्य के उत्स को पशुत्व मे खोजना उचित नही है । जय के अनुसार मनुष्य देव है और स्व १ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार । ( १६-५-७१ ) | २ जैनेन्द्र कुमार 'जयवर्धन' पृ० १५१ । ३ जैनेन्द्र कुमार ' जयवर्धन' पु० १५१ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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