SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका मे ऐसे व्यक्ति दुर्लभ ही होगे जिनके मार्ग मे कठिनाझ्या आहा नही । राजमार्ग पर चलकर अपनी जीवन-यात्रा सपन्न करने वाले विरको ही होते है । जैनेन्द्र के अनुसार "जिनके मार्ग में कठिनाइया आती ही नही है, सब सुगमता ही सुगमता रहती है, वे जीवन मे बहुत दूर तक और ऊचे तक नही जा पाते । "देखा जाता है कि कठिनाई और अवरोधो ने ही अमुक जीवन के मार्ग को दिशा प्रौर स्वरूप दिया है।" कठिनाइयो को झेलते हुए भी जीवन-सरिता सतत् प्रवाहित होती रहती है। जैनेन्द्र जीवन की परिवर्तनशीलता मे ही विश्वास करते हे, पराजित होकर जडबद्ध हो जाना तथा प्रगति को अवरुद्ध कर देना वे उचित नही समझते । जैनेन्द्र के अनुसार परिवर्तन जीवन का नियम है। जीवन प्रेम है और प्रेम का भी नियम परिवर्तन है।' 'प्रेम जीवन का मूलाधार है, अतएव जीवन मे परिवर्तन आवश्यक है। प्रकृति परिवर्तनशील है, समाज की मान्यता परिवतनीय हे तो व्यक्ति का जीव न जड नही हो सकता । 'कत्याणी' मे एक स्थल पर जैनेन्द्र ने जीवन की गतिशीलता पर प्रकाश डालते हुए कहा हे . "रुनाना नाम जिन्दगी का नही है, जिन्दगी नाम चलने का है। जीवन में सुख-दुःख, उतार-चढाव आते रहते है, किन्तु जीवन की यात्रा चलती रहती है। खिन्न होकर रुक जाना जीवन का प्रादर्श नही है। जैनेन्द्र ने 'कल्याणी' मे कल्याणी के द्वारा रचित एक गद्य-गीत मे जिस बटोही की कल्पना की वह अपनी आन्तय॑था को सजोए अज्ञात पथ की ओर चलता जाता है। उसकी वेदना के मूल मे प्रेम का स्वर ध्वनित होता प्रतीत होता है। वह एकमात्र उसी स्वर के आकर्षण पर भटकता हुआ चलता जाता है । वस्तुत जैनेन्द्र के जीवन का पादश अन्तस् मे प्रेम की लौ को जलाकर जीवन की अनन्त यात्रा पूर्ण करना है। विरह-व्यथा से शक्ति उद्भूत होती है। जैनेन्द्र ने 'त्यागपत्र' मे जीवन मे बूद-बूद रिसने वाली वेदना का जो रूप प्रस्तुत किया है, वह जीवन के सबध मे उनके दृष्टिकोण को व्यक्त करने मे पूर्णत सहायक प्रतीत होती है। जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य का आधार है-व्यथा । १ प्रभाकर माचवे 'जैनेन्द्र के विचार', १०८२ । २ जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', दिल्ली, प्र० स०, १६५३, पृ० ७० । ३ जैनेन्द्र कुमार 'कल्याणी', पृ० ५। __ "मानव चलता जाता है और बूद-बूद दर्द उसके भीतर इकट्ठा होकर भरता जाता है वही सार है, वहीं जमा हुआ दर्द मानव की मानस-मणि है। उसके प्रकाश मे मानव व्यक्ति-पथ उज्जवल होगा।" --जैनेन्द्रकुमार 'त्याग-पत्र', बम्बई, पृ० ४५ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy