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________________ जैनेन्द्र . जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण के साथ उसके व्यक्तिगत जीवन की सत्यता को भी स्वीकार किया है । राजनीति अथवा धर्म को लेकर व्यक्ति स्वय से इतना टूट नहीं जाता कि वह व्यक्ति ही न रहे। ___जैनेन्द्र मन को प्रताडित करते रहने की परिपाटी के कायल नही है । उनकी रष्टि मे वह सब प्राचार व्यभिचार है, जिसमे भय और सशय है । भय से साधी जाने वाली नैतिकता समाज मे ऐसी सडाध उत्पन्न करती है, जिसके बीच घुटता हुआ जीवन स्वच्छ वायु के अभाव मे निष्प्राण प्रतीत होने लगता है । वस्तुत: व्यक्ति का जीवन एक अखण्ड इकाई है । जिस प्रकार नक्शे की मोटी लकीर जमीन पर नही मिलती, उसी प्रकार जिन्दगी पर तत्ववादी की लकीर भी नही है । धरती एक है। हर बिन्दु पर वहा उत्तर-दक्षिण मिला हुआ है, इसी तरह जिन्दगी एक चीज है और उसके हर जीवन-करण-कण पर सत्व-रज और तम मिल जाते है। जैनेन्द्र गुरणो के भेद को स्वीकार करते है तथापि गुण-भेद के द्वारा जीवन की अखडता को विभाजित करने के पक्ष मे नही है। निष्कर्षत. जैनेन्द्र के साहित्य का इष्ट अखण्डता की भावना ही है, उन्होने स्वय ही यह स्वीकार किया है कि उनके मन में एक गहरा अन्तर्दन्द्व है, अकुलाहट है जो प्रकट होने के लिए बेचैन है । और वह है यही अखण्डता की भावना । अपनी इस आन्तरिक उद्वेलन को प्रकट करने के लिए उपन्यास और कहानी की रचना की है। उनकी दृष्टि मे अखण्डता का बोध ही वह कुजी है, जो जीवन की बड़ी से बड़ी समस्या के समाधान में सहायक हो सकती है किन्तु यह अखण्डता ही व्यक्ति की पकड से बाहर हो रही है। जैनेन्द्र के अनुसार इस अखण्डता को ढूढने का एक मात्र साधन है-प्रेम और अहिंसा । जैनेन्द्र का सम्पूर्ण साहित्य प्रेम और हिसा के अर्थों को ही व्याख्यायित करता हुआ प्रतीत होता है। उनकी दृष्टि में प्रेम और अहिंसा का अर्थ है, दूसरे के लिए अपने को पीडा देना। पीडा मे ही परमात्मा बसता है। उन्होने स्पष्टत स्वीकार किया है कि 'मेरे उपन्यास आत्मपीडन के ही साधन है और इसीलिए मैंने उनमे कामप्रवृत्ति की प्रधानता रखी है, क्योकि काम की यातनाओ मे ही आत्मपीडन का तीव्रतम रूप है।" उनका विश्वास है कि उनके उपन्यास पाठक को जितनी आत्मपीडन की प्रेरणा देते हैं, जितना उसके हृदय मे प्रेम पैदा करके जीवन की अखण्डता का अनुभव कराते है, उतने ही सफल कहे जा सकते है। जैनेन्द्र का समग्र १. जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत', पृ० २५६ । २. डा० नगेन्द्र : "प्रास्था के चरण', प्र० स० ३०० । ३. डा० नगेन्द्र : "प्रास्था के चरण', प० स० ३००। ४. डा० नगेन्द्र : 'आस्था के चरण', पृ० सं० ३०० ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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