SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन है ।' जैनेन्द्र की दृष्टि मे हर बीता हुआ क्षरण भी पुराना है और आने वाला क्षरण नवीन है । जीवन का सत्य काल से बंधा हुआ नही है, वह तो सर्वकाल व्यापी है । उनकी दृष्टि मे काल से तद्गत होकर चलने वाला साहित्य शाश्वत और 'सनातन नही हो सकता।' इसीलिए वे साहित्य के सम्बन्ध मे नये पुराने अथवा आधुनिक और प्राचीन के भेद को स्वीकार करने के पक्ष मे नही है । क्योकि काल की अनन्तता मे कुछ भी नया पुराना नही है । स्थूल रूप से दृष्टिगत होने वाली घटना ही पुरानी होती है, उसमे व्याप्त सत्य सदैव एक ही रहता है । साहित्य का आदर्श घटना के माध्यम से सत्य को ही उद्घाटित करना है । जैनेन्द्र के साहित्य कालखण्ड से ऊपर उठने का भाव लक्षित होता है । उनके पात्र यथार्थ से जडित नही है । भावी जीवन की कल्पना पर ही जीवनशक्ति ग्रहरण करते है । साहित्यकार द्रष्टा के सदृश्य भावी सम्भावनाओ पर अपने कथासूत्रो को विकसित करता है । साहित्य - प्रक्रिया इतिहास के सदृश काल के निश्चित आयाम मे परिबद्ध नही है । जैनेन्द्र के साहित्य मे जो हमे प्रयथार्थ प्रतीत होता है वह प्रयथार्थ न होकर सम्भावित भी है । साहित्यकार हजारो वर्षों की बीती घटना को अथवा भावी परिकल्पना को अपने साहित्य मे प्रतिष्ठित कर सकता है। जैनेन्द्र की 'नीलम प्रदेश की राजकन्या' मे मानवीय अनुभूति और सवेदना के सस्पर्श से हजारो वर्ष पूर्व का जीवन वर्तमान की पीठिका पर चित्रित होने में समर्थ हो सका है ।' दिन, माह, वर्ष आदि हमारी परिकल्पनाए है । अन्यथा काल का बोध क्षरण की अनुभूति मे ही होता है । जैनेन्द्र के साहित्य का अवलोकन करने से यह विदित होता है कि काल की गणना मानव निर्मित तथ्य है । विश्वात्मा के निकट वह पल के समान है । 'जैसे हम परकार पैमाने से ब्रह्माण्ड खीचते है, वैसे इतिहास से काल घेरते है, पर समय अनुभूति मे है, चेतना से विलग वह सच्चाई नही । " १ 'मै काल को विभक्त करके पकडने के खिलाफ हू । जो लोग ऐसा करते है, वे सत्य को जडित करते है । काल तो प्रवाही है । काल के तट पर सत्य अभिव्यक्त होता रहता है। इसलिए काल की अमुक अवधि मे साहित्य की सत्यता को अभिव्यक्त नही किया जा सकता - जैनेन्द्रकुमार 'कहानी अनुभव और शिल्प । २ ' व्यक्ति का जीवन जितना यथार्थ पर नही, उतना स्वप्न पर टिका है । कहानी, लेखक की ओर इतना बडा यथार्थ है कि उसमे हजारो वर्ष का जीवन जिसके कारण भरपूर बना रहता है । - साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार । ३ जैनेन्द्रकुमार ' जयवर्धन' पृ० स० ७२ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy