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________________ जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण २६१ की अभिव्यक्ति का प्रयास करता है । वह गहराई में जाता हुआ भी सश्लिष्टता का ही समर्थक होता है। व्यक्ति की आत्मगत सत्यता का बोध प्राप्त करने के लिए सत्य को गहराई से जानने के लिए शरीर का विश्लेषण नही करना पडता । दार्शनिक सत्य के बोध के लिए बुद्धि से अधिक सम्बुद्धि का सहारा लेता है। दर्शन द्वारा जीवन को आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त होती है । आध्यात्मिक दृष्टि आस्थापरक है। प्रास्था विश्लेषण की ओर न जाकर सश्लेषण की ओर उन्मुख होती है। विज्ञान : विश्लेषणात्मक ___आधुनिक युग विज्ञान का युग है । मानव जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र नही है, जो कि विज्ञान के प्रभाव से वचित हो । साहित्य, समाज, अर्थ, धर्म और राजनीति आदि विभिन्न क्षेत्रो मे विज्ञान का प्रभाव स्पष्टत लक्षित होता है । वैज्ञानिक अन्वेषक और विचारक सत्य की खोज मे वस्तु की तह पर तह खोलते चले जाते है। अपनी अनन्त जिज्ञासा मे वे सदैव तृषित ही रहते है, क्योकि बौद्धिक जिज्ञासू विश्वास के द्वारा किसी स्थिति पर ठहरता नही है, वरन तर्क के सहारे स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम की ओर बढ़ता जाता है। वैज्ञानिक सत्य को खण्ड-खण्ड में विभाजित करके देखने की प्रक्रिया अपनाता है, किन्तु दार्शनिक अखण्डता और अविभाज्यता मे सत्य को देखने का प्रयत्न करता है। वैज्ञानिक उपकरणो द्वारा जीवन अधिकाधिक सुविधामय होता जा रहा है। किन्तु बाह्य जीवन की सुविधाए आत्मा को परितृप्त नही कर सकती। साहित्य, विज्ञान और दर्शन के मध्य की वह कडी है जो मानव जीवन को व्यावहारिक दृष्टि प्रदान करने में समर्थ है । दर्शन की समग्र दृष्टि का प्ररूपण साहित्य के धरातल पर ही सम्भव होता है । साहित्य मानव जीवन की समग्रता का व्यवहारिक पहलू है। जैनेन्द्र का संश्लेषणात्मक दृष्टिकोण जैनेन्द्र की जीवनदृष्टि उनके साहित्य मे पूर्णतः परिलक्षित होती है । साहित्य लेखक के विचारो का ही प्रतिबिम्ब है। जैनेन्द्र के साहित्य की ऐक्यानुभूति उनके विचारो की सश्लिष्टता की ही परिचायक है । उनके साहित्य मे जीवन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि, मनोवैज्ञानिक दृष्टि, साहित्यक विचार और भावगत चेतना के मूल में अखंडता अथवा अद्वैता के ही दर्शन होते है । उनके साहित्य की आत्मा व्यष्टि और समष्टि, अहंता और भगवत्ता, चेतन और अचेतन, यथार्थ वा आदर्श तथा प्राध्यात्म और भौतिकता के ऐक्य का पूर्ण निदर्शन प्राप्त
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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