SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र पार गत्य २८७ फुटी पडती है वह कहती हे---बीस गाल हो गए है, शायद अधिक...आखेगेरी उठी हे और सामने की आखो मे मैने चाह चीन्ही है । पर तब भी आखे मुद गयी है और मुदी रही है । उगलियो के पोरो मे लालमा लहकी दिखी है, कि वे अब बहेगी। लेकिन नही, नाम के नाप में उन्हे अपनी ही ओर से लिया गया है।...इसी तरह एक दिन, दो दिन, तीन दिन.. हर दिन अगले के इन्तजार में बीतता गया है, पर कुछ नही हुआ है और पच्चीग वर्ष हो गए है...पर आशा टूटती ..शायद ही कि बज़ पिघले ।..' इला का प्रत्येक शब्द नारी हृदय की उग पीला की अभिव्यक्ति मे समर्ण है, जिसमे वर्षों की प्यारा छिपी हे और नारी की सबसे बडी कामना मातृत्व की चाह भी तो हो सकती है। इला जय के निकार रहते हुए भी विरह की वेदना को सहन करने में ही अपनी कृतार्थता समझती है। उसके भीतर अभावजन्य एक गहन पीडा की सिस्कन बनी रहती है। उराक अन्तस् मे प्रेम है । इस कारण वह वियोग सहने में भी समर्थ होती है। यदि प्रेम ही सभव न होता तो उसके व्यक्तित्व मे इतनी गहराई नही आ सकती थी। जैनेन्द्र ने एक ग्थल पर स्वीकार किया है कि अभ्यन्तर में यदि स्वीकृति हो, तो.. तब बाहरी वियोग का भार उठाना कठिन नही होता, बल्कि सल्ले प्रिय ही हो जाता है।.. प्रेम स्वय अपनी व्यथा सहना मिखाता है।' विरह मे महनशक्ति ही प्रेम को जीवन्त बनाए रखती है। जैनन्द्र के साहित्य में नारी पात्रो की सहनशक्ति का अद्वितीय रूप प्राप्त होता है। 'त्यागपन' की मृणाल और 'कल्याण' मे कल्याणी का जीवन मानो पीडा की गाकार प्रतिमूति ही है। कल्याणी का व्यक्तित्व आरम्भ से ही इतना उलझा हा है कि गत्यता प्रयत्नपूर्वक भी ग्राह्य नहीं हो पाती कारण, प्रेम की पीडा उनके अन्तस् मे इतनी गहराई से बिधी हुई है कि वह किसी क्षण भी उसमें मुका नहीं हो पाती । वह जानती है कि उसके जीवन मे कुछ अनवाहा घटित हो गया है, जो उसके भीतर की शान्ति को भग किए रहता है। कल्याणी द्वारा लिखे गए एक लेख में उसके अन्तर्द्वन्द्व की पूर्णाभिव्यक्ति होती है । वह प्रेम को सर्वस्व मानती है किन्तु प्रेम की महत्ता प्राप्ति मे नही है । वह कहती हे 'प्रीति इतनी रीति है भारती, प्रसाद है उसका वियोग ।'५ 'गवार' कहानी में भी इसी शक्ति की अभिव्यक्ति हुई है।' जैनेन्द्र की मान्यता है कि १. जैनेन्द्र कुमार , 'जयवर्धन', पृ० १३३ । २ जैनेन्द्रकुमार . 'कल्याणी', पृ० ८२ । ३. जैनेन्द्रकुमार : जनेन्द्र की कहानियां', भाग ६, पृ० २०५ । 'वह प्रेम भयावह है जिसमें प्रभाव नही, तृप्ति है,-वह तभी घृण्य हो उठता है।'
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy