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________________ २८२ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन होना मुझे ईष्ट है। सच्चा होकर कोई बुरा भी निकले तो मुझे असह्य न होगा। उत्टे झूठा होकर कोई शिष्ट, सभ्य, सम्भ्रान्त, शान्त आदि दिखे तो मेरी सह्यता टूटने लग जाती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे सत्य छल मे नही है। जैनेन्द्र के साहित्य मे सत्य को समझने के लिए उनकी रचनाओ मे सत्य का वास्तविक रूप देखना अनिवार्य है। कहानी के द्वारा लेखक की सही दृष्टि को प्राप्त करना और उसके आधार पर ही निर्णय प्रस्तुत करना आवश्यक है। प्राय जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त सत्य के सही रूप को न जानने के कारण ही उनके सम्बन्ध मे भ्रम उत्पन्न हो जाता है । 'सुनीता' पे लेखक का उद्देश्य पारिवारिक अवसाद को दूर करने के साथ ही हरिप्रसन्न के अवदमित मन के भीतर छिपी हुई सत्यता को भी प्रकाशित करना है, क्योकि आत्म-परिवार अथवा आत्मोन्नति सत्य की स्वीकृति मे ही सम्भव हो सकती है। सत्य के निषेध मे बाह्य रूप से दिखाई देने वाली सारी चेष्टा अर्थहीन सिद्व हो जाती है। हरिप्रसन्न का व्यक्तित्व मनोविज्ञान की भूमि पर ही अभिव्यक्त हुआ है । उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध मे हमारे मन मे एक आदर्श परिकल्पना होती है। उसके विचारो मे हमे सात्विकता के दर्शन होते है, किन्तु अन्त मे उसगी जो प्रतिक्रिया होती है, उसे हम पाप समझते हे और उस स्थिति को अश्लीलता की सूचक मानते है । किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि मे वही सत्य है। जब तक व्यक्ति अपने मन की सच्चाई को स्वत ही स्वीकार नही करता अथवा उसके प्रति सजग नही होता, तब तक उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में दिया जाने वाला निर्णय उसके अपूर्ण व्यक्तित्व की प्रतिक्रिया होगा, क्योकि मच्चाई ऊपर नही दिखायी देती। सुनीता के पूर्ण समर्पण के समक्ष हरिप्रसन्न टिक नही पाता। उपन्यास मे उसकी जो प्रतिक्रिया दिखायी देती है, उससे सामान्यत यही प्रतीत होता है कि हरिप्रसन्न अपने इच्छित उपलक्ष्य को प्रत्यक्ष देखकर मानसिक रूप से ही सन्तुष्ट हो जाता है। किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि में सत्य इससे परे है। ऊपर से आदर्श प्रतीत होने वाले व्यक्ति के अन्तस् की सच्चाई को कोई नही जानता, इसी सहारे वह दुनिया की आखो मे आदर्श प्रतीत होता है, किन्तु यदि उसे पता चल जाय कि लोग उसके भीतर की सत्यता को जानते है तो वह उनसे दृष्टि न मिला सकेगा, ठीक यही स्थिति हरिप्रसन्न की होती है। जैनेन्द्र के अनुसार---'आदमी का दर्पण मे अपना ही चित्र मिल जाय तो वह एकाएक सभल जाता है। अपने सबध में जितना भी आत्म सम्मान का भाव है--उसकी रक्षा के लिए वह लौट जाता है । सुनीता हरिप्रसन्न को चुनोती १ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० ३६६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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