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________________ २७४ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन है । जानना बुद्धि के द्वारा होता है, तथा तर्क द्वारा उसे प्रमाणित किया जाता है, किन्तु तर्क द्वारा उसे ही सिद्ध किया जा सकता है, जो प्रत्यक्ष और दृश्य है । अदृश्य और सूक्ष्म सत्य के सम्बन्ध मे व्यक्ति केवल कल्पना कर सकता है । 'जयवर्धन' मे इस तथ्य की पुष्टि की गयी है। 'सत्य' हुनर ज्यादा है, जानना कम है। सत्य के ज्ञान को सदैव अपने अज्ञान के रूप मे ही मानते रहने मे व्यक्ति की कृतार्थता है। 'कल्याणी' मे कल्याणी सत्य की सिद्धि के लिए तर्क को सर्वथा निरर्थक रूप में ही स्वीकार करती है। उसके अनुसार--'तर्क सच्चाई को लपेट नही पाता है, समझना कभी पूरा हो नही सकता ।' जिज्ञासा सत् का स्वरूप नेति-नेति रह जाता है। यही वेदान्तिक सत्य है । जैनेन्द्र के अनुसार 'न' कार से यह तात्पर्य नही है कि सत्य है ही नही, वरन् नेति-नेति से तात्पर्य यह है कि व्यक्ति उस 'इति' को जान नही सकता, जो जानता है वह 'नेति' है। इसीलिए जैनेन्द्र सत्य के जिज्ञासु मे अपार धैर्य की आवश्यकता का अनुभव करते है । सत्य यदि व्यक्ति की पकड मे आ जाय तो वह सत्य नही रहेगा। 'कल्याणी' मे लेखक ने सत्य के सम्बन्ध मे व्यक्ति की जिज्ञासा को एक चुनौती के रूप मे स्वीकार किया है। उनके अनुसार--'जहा चुनौती नही है और जो बुद्धि के हाथो मे पालतू-सा दीखता है, वह सत्य भी नही है । अतएव आवश्यकता है कि सत्य के प्रति व्यक्ति सदा सप्रश्न और नतमस्तक रहे । 'सत्-ज्ञान' सत्त जिज्ञासा मे है ।' 'व्यर्थ प्रयत्न' मे भी सत्य को बुद्धि द्वारा जानने के प्रयत्न को अन्तत पराभूत होते हुए दर्शाया है । चिन्तामणि शून्य मे आख गडाकर उस सत्य को देखना चाहता है। काल की अनन्तता मे अदृश्य सत्य को देखने मे उसकी आस्था नही है। वह सत्य को प्रत्यक्ष देख लेना चाहता है, किन्तु सत्य तो शून्य मे है । वह शून्य को भेदना चाहता है, किन्तु उसकी बौद्धिक पिपासा शान्त नही होती। वेद, पुराण, उपनिषद् आदि का अध्ययन भी उसे सत्य का बोध कराने में असमर्थ होता है। उसकी आन्तरिक अशान्ति बढ़ती ही जाती है तथा उसे अपना आपा भी भारी प्रतीत होता है । अन्तत समर्पण की भावना ही उसे ईश्वर का अनुभव कराने मे समर्थ होती है। जैनेन्द्र के अनुसार सत्य अज्ञात है और जिज्ञासा सदैव अज्ञात में से पाती १ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० ६८ । २ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० ६८ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० ६८ । ४ जैनेन्द्रकुमार . 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ७, पृ० स० १२६-१२६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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