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________________ परिच्छेद-6 जैनेन्द्र और सत्य सत्य जिज्ञासामूलक मानव-प्राणी जिज्ञासा प्रधान है। व्यक्ति की जिज्ञासा का प्रबलतम आकर्षण अज्ञेय अथवा अदृश्य की ओर विशेषतया दृष्टिगत होता है। आदिकाल से ही दार्शनिको मे ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा बनी रही है । ब्रह्म को हम 'नेति-नेति' कहकर समझने की चेष्टा करते है। जो दृश्य है, प्रत्यक्ष है, ज्ञेय है वह सब अपूर्ण और मिथ्या है । अन्तिम सत्य को हम नहीं जान पाते । किन्तु सत्य पूर्ण ही हो सकता है। ब्रह्म पूर्ण है, उसका अस्तित्व निरपेक्ष है। वह सत्य है । जीव नश्वर और ससीम है । अतएव जो नाशवान् है वह सत्य कैसे हो सकता है ? सत्य तो वही हो सकता है, जिसके साथ 'अस्ति' का भाव प्राप्त हो सके । वेद, पुराण आदि सभी धर्मशास्त्रो मे जगत को मिथ्या माना गया है। जीवन और जगत अन्तिम सत्य नही है। जिन दार्शनिको ने जगत की सत्यता पर बल दिया है, उनकी दृष्टि जीवन की व्यावहारिकता पर आधारित रही है। किन्तु जगत नाशवान् ही है। जैनेन्द्र कुमार सत्य 'सत्' का भाव धारण करता है। सत् का तात्पर्य होने से है, जो वस्तु या शक्ति सदैव स्थिर रहती है, जिसकी न कभी उत्पत्ति होती है और न कभी विनाश, उसी का होना ही वास्तविक होना है। ऐसी सत्स्वरूप शक्ति ही 'सत्य' की सज्ञा से युक्त की जा सकती है। परम सत्य अद्वत विश्व के समस्त दार्शनिको के समक्ष प्रमुख समस्या यही रही है कि सत्य
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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