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________________ २६८ जैनेन्द का जीवन-दर्शन साहित्य-प्रास्तिकता जैनेन्द्र का साहित्य उनके दार्शनिक चिन्तन से अभिभूत है । प्रेमचन्द्र मानवतावादी उपन्यासकार है। उन्होने आदर्श जीवन के लिए मानवोचित सेवा, त्याग, दया आदि गुणो को अपने पात्रो मे घटित होते हुए दर्शाया है । प्रेमचन्द ईश्वरवादी नही है। किन्तु जैनेन्द्र का साहित्य उनकी आस्तिकता से अनुप्राणित है। उनकी दृष्टि मे ईश्वर ही सत्य है और ईश्वरोन्मुख होना सत्साहित्य का लक्षण है। उनके साहित्य के रोम-रोम मे ईश्वरीय आस्था समाहित है । उन्होने अपने पात्रो के माध्यम से धर्ममय जीवनदृष्टि पर बल दिया है। वस्तुत जेनेन्द्र ने कथासाहित्य को दर्शन की भूमि पर आधारित करके साहित्य जगत को एक नवीन दृष्टि प्रदान की है। उनके आध्यात्मिक मनोभाव के द्वारा जीवन के गम्भीर सत्यो का उद्घाटन हुआ है । 'व्यर्थ-प्रयत्न', 'दर्शन की राह', 'तत्सत' आदि कहानिया तथा उपन्यानो मे उनकी दार्शनिकता की स्पष्ट झलक मिलती है। जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे उनकी दार्शनिक दृष्टि परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से समायी हुई है। जैनेन्द्र की दार्शनिकता के कारण कभी-कभी साहित्य के कोमल पक्षो पर ठेस भी लगी है । यथा 'खेल' कहानी मे अबोध भाई-बहनो के सरल, स्वच्छन्द, हास-परिहास और द्वन्द्व के बीच विधाता को लाकर खडा करना बहुत ही अस्वाभाविक प्रतीत होता है । तथापि कुछ स्थलो पर जैनेन्द्र की दार्शनिक दृष्टि मानव जीवन की सत्यता का उद्घाटन करने में समर्थ है। सामाजिक दृष्टि चिरन्तन सत्य जैनेन्द्र की साहित्यगत सत्यता को जानने के अनन्तर उनके विचारो के सम्बन्ध मे उत्पन्न सारा धन निराधार सिद्ध हो जाता है। जैनेन्द्र के साहित्य की प्रमुख समस्या स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तथा विवाह मे प्रेम के प्रवेश के कारण ही उत्पन्न होती है। जैनेन्द्र से पूर्व उपन्यासकारो ने और विशेषत प्रेमचन्द ने स्त्री को भगिनी, माता और पत्नी के रूप मे ही देखा है किन्तु जैनेन्द्र ने सर्वप्रथम स्त्री-पुरुष को नियक्तिक रूप मे स्वीकार किया है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे नैतिक और अनैतिक की समस्या स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मे केन्द्रित नही है । जैनेन्द्र के पात्र प्रेमचन्द से बहुत आगे है। उन्होने घर और बाहर की समस्या द्वारा मानव जीवन के चिरन्तन प्रश्न का समाधान प्रस्तुत किया है। ___जैनेन्द्र के साहित्य के सम्बन्ध मे कुछ विद्वानो की यह धारणा है कि वे जीवन की वास्तविकता और अनुभव से इतर कल्पना और विचारो की प्रतिमूर्ति है। उनके अनुसार जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे अनुभूति की उपेक्षा करते
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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