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________________ जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग २६५ कट्टो का मौन परिस्थिति को और भी भारी बना देता है। बिहारी के हर प्रश्न के उत्तर मे 'कट्टो चुप-सुन ।' 'कट्टो सुन—मूर्तिवत् ।' 'कट्टो मूर्तिसरीखी-जडवत् ।' 'कट्टो जडवत्--अचेत पर देखो-देखो, कट्टो अचेत मूछित होकर गिरी जा रही है | की स्थिति हमारे हृदय पर लगातार ऐसा प्रहार करती है कि हम कट्टो के साथ ही जडवत् हो जाते है ।' शब्द के अभाव मे भी कट्टो के हृदय का उद्गार हमारे अन्तस् को भिगोता ही नहीं, वरन् आकण्ठ भर देता है । हम चेतनाशून्य हो उठते है । मानसिक स्थिति की इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति जैनेन्द्र की प्रतिभा से ही सम्भव हो सकी है। उसमे बनावट से कोसो दूर सहजता और भावोद्रेक का अपार सागर उमडा पडता है। जैनेन्द्र भाषा का बन्धन नही स्वीकार करते । उनकी दृष्टि मे यदि भाषा भावो की अभिव्यक्ति मे बाधक रहती है तो उसकी उपादेयता महत्वहीन हो जाती है। जैनेन्द्र ने अपनी रचना-काल के प्रारम्भ से ही सहज तथा भावानुकूल भाषा का ही प्रयोग किया है । भाव-भाषा के जिस रूप मे बह निकला उसे उन्होने रोकने की चेष्टा नही की। 'फासी', 'एकरात' आदि कहानियो मे तथा 'अनन्तर', 'मुक्तिबोध' आदि उपन्यासो मे अगरेजी के शब्दो का ही नही, पूरे-केपूरे वाक्यो का प्रयोग किया गया है । जो कि पात्रो के अनुकूल ही है । उसमे जबर्दस्ती हिन्दी का लोभ प्रदर्शित करना वे उचित नही समझते । जैनेन्द्र ने अगरेजी ही नही, उर्दू भाषा के शब्दो का भी प्रयोग किया है । कही-कही उन्होने बहुत ही शायराना ढग से भाव व्यक्त किया है । इसके अतिरिक्त पात्र, वर्ग और मन स्थिति के अनुकूल भी शब्दो का प्रयोग मिलता है, जिससे विषय की महिमा द्विगुरिणत हो गई है। साराशत. जैनेन्द्र के साहित्य मे मन स्थितियो का ही उद्घाटन हुआ है। जैनेन्द्र की कहानियो या उपन्यासो मे ही नही, वरन् अधिकाशत नई कहानियो मे घटनाप्रो का घटाटोप कम है, जिसे जैनेन्द्र शुभ मानते है । उपन्यास और कहानी के सदृश्य ही जैनेन्द्र के निबन्ध भी साहित्य मे अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते है। उनके निबन्धो की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सरसता और व्यावहारिक विषयो की स्वीकृति मे ही लक्षित होती है। उन्होने गम्भीर से गम्भीर विषय का विवेचन नित्य-प्रति की घटनाओ के आधार पर इतनी सरल भाषा और शैली मे किया है कि उसमे कथा की-सी रसानुभूति प्राप्त होती है। 'सोच-विचार', 'इतस्तत', 'परिप्रेक्ष', जैनेन्द्र के विचार मे सग्रहीत निबन्ध इसी शैली पर आधारित है । निबन्धो मे भी सत्य को स्पष्ट रूप में व्यक्त न करके सकेत द्वारा ही काम चलाया है । 'दही और समाज', 'जरूरी
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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