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________________ जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग २५५ स्वीकार करते हुए अग्रोन्मुखी हुए है। अतएव यह कहना कि जैनेन्द्र के व्यक्ति समाज के साथ जूझते नही है, उचित नही प्रतीत होता है । साहित्य • कल्याणमय सुधारवादी लेखक के समक्ष साहित्य की उपयोगिता की दृष्टि प्रधान होती है। उपयोगिता को लक्ष्य बनाने में व्यक्ति का अहभाव प्रदर्शित होता है। किन्तु सच्चा माहित्य अह के विसर्जन मे से ही प्राप्त हो सकता है। वस्तुत उपयोगिता को दृष्टि मे रखकर जो साहित्य-सृजन होगा, वह उत्तम साहित्य नही माना जायगा । उपयोगी होने मे साहित्य की आत्मा अथवा रसानुभूति का क्षय हो जाता है। इसीलिए साहित्य का स्वरूप शिवमय अथवा कल्याणमय होता है । कल्याणकारी होना नहीं है । शिवमयता ही साहित्य की सत्यता है । साहित्य भावमय होता है। उसमे कर्तृत्व का भाव नही रहता । अतएव जिसको विचार व्यक्त कहे, वह साहित्य का आदर्श नही हो सकता । साहित्य का आदर्श वही हो सकता है जो विविध वृत्ति के व्यक्तियो के लिए समान हो सके। साहित्यगत विभिन्न वाद उपयोगितावाद को ही आधार बनाकर लिखे गए है। प्रगतिवादी साहित्य सामाजिक विषमताओ और दारिद्रय को दूर करने के प्रयत्न में ही रचित है । मार्क्सवादी विचारक, साहित्य द्वारा आर्थिक विषमता को दूर करने के हेतु प्रयत्नशील रहे है । विभिन्न वाद-प्रतिवाद अपने पक्ष का समर्थन करते है किन्तु साहित्य का सत्य वाद-विवाद के द्वन्द्व मे परिवर्तित नही होता । साहित्य का आदर्श वही हो सकता है जो सार्वभौम और सर्वकालीन हो। इस प्रकार 'स्व-पर' दोनो दृष्टियो से साहित्य के स्वरूप मे कोई अन्तर नही दृष्टिगत होता। प्रात्मपेक्षी भाषा मे वही आत्मलाभ है और वस्तुपेक्षी भाषा में प्रेम-लाभ ।' प्रेमास्पद हमसे भिन्न होकर वस्तुलक्षी हो जाता है किन्तु आत्म और वस्तु, 'स्व' और 'पर' के हित मे अन्तर नही प्रतीत होता। ___ जैनेन्द्र के अनुसार जीवन का अर्थ सीमा का अस्वीकार नही है। सारे प्रयोजन सीमा के साथ है, लेकिन आस्था असीम की ओर चलती है और वही मूल पूजी है । साहित्य का प्रयोजन तत्कालीनता मे अथवा सम-सामयिकता मे परिबद्ध होना नही है। सामयिकता का स्पर्श करते हुए उसकी गति काल के पार होनी चाहिए, जहा समस्त विभक्तताए एक सत्य मे समाहित हो जाती है। किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार- 'जब हम प्रयोजन को ही अपने-आप मे पोषना और १ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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