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________________ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन सार्थकता ही नही, यदि पर की स्वीकृति न हो तो । स्व और पर ही सृष्टि के आधार है । इस प्रकार पर की स्वीकृति द्वारा समाज से विमुखता का प्रश्न ही नही उठता । वरन् समाज की ओर उन्मुखता को ही प्रश्रय मिलता है । जैनेन्द्र के साहित्य मे दृष्टिगत श्रात्मनिष्ठा का आधार मनोविज्ञान है । जैनेन्द्र ने अपने पात्रो के अचेतन मन मे अवस्थित ग्रन्थियो को सुलझाने का प्रयास किया है । व्यक्ति के प्राचरण में जो विकृति और वैचित्र्य दृष्टिगत होता है उसका कारण उसके अन्त मे निहित कोई ऐसी ग्रन्थि है जो उसे सहज नही होने देती । जैनेन्द्र ने मनोविज्ञान के सहारे व्यक्ति की अन्त प्रकृति का उद्घाटन किया है । सामान्यत हम व्यक्ति के बाह्य आचरण मे उत्पन्न दोष के कारण व्यक्ति विशेष को अच्छा या बुरा, दोषी या निर्दोष समझने लगते है, किन्तु यह जानने की चेष्टा नही करते कि ऐसा क्यो होता है ? जैनेन्द्र ने व्यावहारिक मनोविज्ञान के द्वारा आचरण के उत्स को जानने की चेष्टा की है । इसलिए वे कार्य से अधिक कारण पर बल देते है । 'सुखदा', 'विवर्त' और 'सुनीता' मे 'सुखदा, जितेन और हरिप्रसन्न के मन मे एक गहरा अन्तर्द्वन्द्व है, जिसके कारण वे सामान्य कार्य करते है और वे यह नही समझ पाते कि उनके आचरण मे आने वाली विचित्रता और ध्वसात्मकता का क्या कारण है ? किन्तु सत्य स्पष्ट है कि विद्रोह और क्रान्ति का कारण आन्तरिक प्रभाव और पारस्परिक दूरी ही है । इसलिए जैनेन्द्र अपने पात्रो द्वारा होने वाली बाह्य चेष्टाओ, तोड-फोड मे कोई सार नही देखते, क्योकि सत्य तो कार्य के कारण सत्य की स्वी २५२ समाहित होता है । वस्तुत जेनेन्द्र के अनुसार यदि कारण कृति हो जाय तो कार्य की प्रतिक्रिया का प्रश्न ही नही उठता । जैनेन्द्र सुधारवादी नही जैनेन्द्र आत्मनिष्ठ लेखक है । व्यक्ति की आतरिक स्थिति ही बाह्य द्वन्द्व अथवा समस्या का कारण है । इसलिए उपर से सुधार का प्रश्न व्यर्थ है । जैनेन्द्र स्वय को सुधारवादी नही मानते ।' जैनेन्द्र से पूरे साहित्य की महत्ता का मूलाधार उनकी सुधारवादी प्रवृत्ति मे ही अन्तर्भूत था, किन्तु जैनेन्द्र का विश्वास है कि जो सामाजिक मान्यता प्रकृतिगत सत्य को स्वीकार करने के लिए नही बनी है, वह अधिक दिन नही चल सकती । सुधार समय सापेक्ष होता है । प्राज . 'सत्य को स्वीकार करके आज की मान्यताओ को उससे जोड़ दे तो वह मान्य हो जायगा, इसलिए मै सुधारवादी नही हू ।' ( साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त )
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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