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________________ जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग २४६ प्राकार-प्रकार, रूप-योजना आदि मे आवश्यकतानुसार परिवर्तन होने से साहित्य की आत्मा में परिवर्तन नही होता । साहित्य में जैनेन्द्र का श्राविर्भाव उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द के प्रनन्तर जैनेन्द्र साहित्य - जगत मे एक नवीन प्रयोग के रूप में अवतरित हुए है । यद्यपि जैनेन्द्र का उद्देश्य साहित्य मे नवीन प्रयोग प्रस्तुत करना नही रहा है, और न ही वे प्रयोग के पक्ष में है, क्योकि उनकी दृष्टि मे प्रयोग के प्रयास में लेखक के 'ग्रह' अथवा ग्राग्रह की ही पुष्टि होती है, जब कि जैनेन्द्र का सम्पूर्ण साहित्य ग्रह विसर्जन की भावना को लेकर ही फलित हुआ है । आदर्श और मर्यादा के सीमित परिवेश मे आबद्ध व्यक्ति चेतना निस्तेज और जड हो चले थे । बाह्य जीवन की समस्या तथा उनके सुधार मे साहित्यकार इतने व्यस्त थे कि अनन्त जगत की आवाज उनसे अनसुनी-सी ही रह गई । व्यक्ति-परिवेश और परिस्थितियो मे ही नही जीवित रहता, उसे अपना जीवन रस श्रात्मा से ही प्राप्त होता है । व्यक्ति की वास्तविकता और उसका सत् स्वरूप उसके अन्त मे ही निहित होता है । सत्य के भीतर होने के कारण ही हम उस पर अपने छल का आवरण डालने मे सफल होते है । किन्तु सत्य तो विजेय है । सत्य के अवदमित रूप का कभी-न-कभी विस्फोट अवश्यम्भावी है । प्रेमचन्द का साहित्य जीवन के समतल धरातल पर सहज गति से बहने वाली सरिता के सदृश बहता चला गया, न उसमे कभी त्वरा आई और न ही कोई अवरोध ही आया। उसमे आन्तरिक द्वन्द्व, मनस्थितिया तथा व्यक्तिगत जीवन की सत्यता और व्यक्तित्व के विधायक तत्वो की प्रोर दृष्टिपात नही किया गया है। वस्तुत प्रेमचन्दोत्तर काल के साहित्य मे आदर्श की भाव-धारा यथार्थ में प्रवाहित होने के लिए मार्ग ढूढ़ रही थी । 'क्या होना चाहिए' से इतर 'क्या है' को जानने की उत्कट लालसा साहित्यकारो को भी पीडित करने लगी थी। ऐसी ही अभावजन्य स्थिति मे जैनेन्द्र का साहित्य एक नवीन दिशा के निर्देश के रूप मे श्रवतरित हुआ । यद्यपि प्रेमचन्द भी अपने जीवन की अन्तिम रचनाओ मे यथार्थ जीवन की पूर्ण अभिव्यक्ति की है, किन्तु यथार्थता का पूर्ण वपन जैनेन्द्र के साहित्य में ही संभव हो सका है । प्रेमचन्द - साहित्य की व्यापक धारा सिमट कर एक सकरी धारा मे प्रवाहित होने लगी । व्यापकता की प्रतिक्रिया के कारण उसमे सघनता का प्रादुर्भाव हुआ | जैनेन्द्र के साहित्य की सघनता ही उन्हे बाह्य जगत से अन्तर्जगत् की गहराई की ओर ले गई । प्रकृति का नियम है कि बाह्य जीवन की समस्याओ
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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