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________________ २४४ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन नियम और आदर्श ही प्रमुख हो जाता है, लडका या दामाद का स्वार्थ नही। वह अपनी दृढता के कारण अपने ही परिवार के लोगो की बेईमानी का रहस्योद्घाटन करने मे सकोच नहीं करता । वस्तुत जैनेन्द्र-साहित्य के माध्यम से ज्ञात होता है कि प्रजातत्र मे शाब्दिक आकर्षण अवश्य है, किन्तु मूल मे व्यक्ति की स्वार्थमयी प्रवृति ही प्रधान है। निष्कर्षत साहित्य मे जैनेन्द्र ने किसी भी वाद-विशेष का सहारा नही लिया है। उनकी दृष्टि मे मानव-हित की कामना ही मुख्य आदर्श है, अन्य सब वाद जो कि आदर्श का ढोग करते है, केवल अह को पुष्ट करने मे ही सफल होते है, व्यक्तिरूप मे नही । व्यक्ति-हित अथवा मानव जाति की उन्नति के हेतु 'स्व' का समर्पण अनिवार्य है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे 'स्व' को बहुत ही व्यापक परिप्रेक्ष्य मे ग्रहण किया है , उनके अनुसार प्रत्येक राष्ट्र का अपना 'स्व' होता है। यह स्वत्वमूलक भावना ही व्यक्ति मे राष्ट्रीयता की भावना को उद्भूत करती है। राष्ट्र-प्रेम मे अपनत्व का भाव अन्तर्निहित रहता है, किन्तु जैनेन्द्र जीवन के किसी भी स्तर पर स्वार्थ को नही टिकने देना चाहते । अतएव विश्व के लिए राष्ट्रीय स्वार्थ का त्याग भी मानवता का परम आदर्श है । जैनेन्द्र के साहित्य की महत्ता इस तथ्य में समाहित है कि वे देश और राष्ट्र के लिए क्सिी भौगोलिक-सीमा को स्वीकार नही करते । उनकी दृष्टि मे सीमा-रेखा खीचने से आदर्शगत भिन्नता होते हुए भी भावनामो मे अन्तर नही आता । इसीलिए उनके साहित्य में बार-बार सम्पूर्ण मानव जाति के ऐक्य तथा देशविदेश के भेद को दूर करके प्रेम पर आधृत अभेदमूलक दृष्टि की प्रतिष्ठापना की है । 'मुक्तिबोध', 'अनन्तर', 'जयवर्धन' आदि उपन्यासो तथा 'वीऽटिस' आदि कहानियो मे यही महत्वपूर्ण दृष्टिकोण दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र की मानवतावादी दृष्टि के मूल मे गाधी की अहिसक नीति की झलक दृष्टिगत होती है। 'स्व' और 'पर' के मूल मे उनकी अहिंसात्मक दृष्टि ही प्रधान है । अहिसा और प्रेम एक ही सिक्के के दो पक्ष के सदृश है। जहाँ प्रेम है वहा हिसा का प्रश्न ही नही उठता। जैनेन्द्र ने अपनी अहिसात्मक नीति के कारण ही साम्यवादी रक्तक्रान्ति का निषेध किया है। सर्वोदय ___जैनेन्द्र की दृष्टि मे समस्त मतवाद अहतामूलक है, क्योकि उनकी दृष्टि सीमित स्वार्थ तक ही केन्द्रित है । यदि व्यक्ति की दृष्टि में अपना या विशिष्ट सस्था अथवा मत का ही हित प्रधान न होकर सारी मानव जाति के हित की भावना प्रधान हो तो, सारा द्वन्द्व और भेद ऐक्य और अभेद के सागर मे विलीन
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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