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________________ २३४ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन मे लाल ऐसा ही क्रान्तिकारी व्यक्ति है, जिसकी दृष्टि मे पैसे ने अपने दात से काट-काट कर जगह-जगह समाज के शरीर मे जो घाव कर रखे है उन घावो का धोना और बहा देना ही उनका प्रमुख शौक है। धन के इस प्रकार पूजीकृत होने से गरीब गरीब होते गये है, अमीर अधिक अमीर होते गये है । इस प्रकार गरीबी और अमीरी दो ऐसे किनारे बन गये है, जिनमे मिलन अर्थात् पारस्परिक प्रेम की कोई सम्भावना ही नही दृष्टिगत होती। जैनेन्द्र के अनुसार पूजी ने व्यक्ति को प्रादमियत से अधिक हैसियत से जोडकर झूठी मर्यादा और प्रतिष्ठा को बढाने मे ही सहयोग दिया है । जैनेन्द्र के साहित्य द्वारा धनी वर्ग के प्रति उनकी घोर वितृष्णा का भाव लक्षित होता है। जैनेन्द्र के साहित्य मे पूजीपतियो के विरुद्ध हिसात्मक वृत्ति भी लक्षित होती है, किन्तु इस वृत्ति द्वारा लेखक का उद्देश्य पूजीपतियो के प्रति अपने प्राक्रोष को ही व्यक्त करना है। 'विवर्त' और 'सुखदा' मे हमे जैनेन्द्र के इन्ही विचारो की झलक मिलती है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे पूजीवादी सभ्यता मे आदमी की नही, वरन् पैसे की पूजा होती है । वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य का अवलोकन करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि धनिक वर्ग की झूठी और छली सभ्यता के प्रति उनके मन मे तनिक भी आस्था नही है। उनका आदर्श मानवमानव की परस्परता मे ही पूर्ण होता है। उन्होने अपने साहित्य द्वारा समाज के इस दोष को दूर करते हुए प्रेममय भावो के प्रसार का प्रयत्न किया है। साम्यवादी दृष्टि उपरोक्त स्थितियो को देखते हुए प्रश्न उठता है कि क्या जैनेन्द्र अपने साहित्य द्वारा समाज की विषमता का उन्मूलन करते हुए आर्थिक समानता लाना चाहते है । क्या वे ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते है, जिसमे समस्त मानवता एक ही साचे मे ढली हो। इस तथ्य की पुष्टि के हेतु जैनेन्द्र के साहित्य मे साम्यवादी और समाजवादी प्रभावो को देखना अनिवार्य है। मार्क्सवाद एक राजनीतिक तन्त्र होने के पूर्व एक दार्शनिक दृष्टि है। कार्ल मार्क्स के अनुसार मानव जीवन की विषमता और समस्त दुखो का एकमात्र कारण आर्थिक विषमता है । अर्थ जीवन की सुख-सुविधाओ का आधार है । उसके अनुचित विभाजन के कारण ही मानव जीवन मे अशान्ति और विद्रोह की भावना जाग्रत होती है । मार्क्सवादी नीति का विश्व साहित्य पर बहुत अधिक प्रभाव लक्षित होता है । जिस प्रकार फ्रायड ने मनोविश्लेषणवादी १ जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा', पृ० स० १०७ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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