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________________ २३० जैनेन्द्र का जीवन-दशन को विवश होते है। अगरेजी राज्य के अनन्तर भी गरीबी और अमीरी का का भेद कम नही हुआ है । गरीब आज भी समाज का उच्छिष्ट अग है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य प्रप्रेम और घृणा की गहरी खाई उत्पन्न करने का एकमात्र कारण धनिक वर्ग की झूठी शान और प्रतिष्ठा है। यही कारण है कि जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में प्रतिष्ठित माने जाने वाले व्यक्तियो को ही विशिष्टता नही प्रदान की है। उनकी दृष्टि मे निर्धन व्यक्ति भी अपनी आत्मा की उच्चता के कारण सम्माननीय स्थान प्राप्त करने का अधिकारी है । यद्यपि अमीरी पाप नही है, किन्तु अमीरी के कारण ही व्यक्ति की नैतिकता और आत्म-चेतना का पतन हो जाता है। धनिक समाज मे चोर, बेईमान, चरित्रहीन व्यक्ति का सच्चा निर्णय नही हो पाता, क्योकि वे पैसे के बल पर ईमानदार और चरित्रवान् बने रहते है। जैनेन्द्र के साहित्य मे समाज के ऐसे वर्ग पर भी प्रकाश डाला गया है जहा सज्जनता के पीछे दुष्कर्मो की बू मिलती है । जैनेन्द्र की 'एकटाइप' तथा 'आतिथ्य' कहानी इस तथ्य की पुष्टि मे प्रस्तुत की जा सकती है। 'एकटाइप' मे एक ऐसे व्यक्ति का परिचय प्राप्त होता है, जो सचमुच टाइप ही है। वह रेल मे सफर करते हुए पूरे समय तक 'शान्ताकारम् भुजग शयनम्' का पाठ अपने ढग से करता रहता है। उसे देखकर कोई नही विश्वास कर सकता कि उसकी सादगी के पीछे ही कोई कालिमा हो सकती है। किन्तु जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे ऐसे व्यक्तियो के जीवन का रहस्योद्घाटन किया है, जो हर भाति सम्भ्रान्त दीखते है, देखते ही उनके भीतर आदर होना स्वाभाविक है। उनके जीवन मे और उनके मन मे शका का कीडा कही नही दीखता। किन्तु थोडी आमदनी होने पर भी वे ऊपरी आमदनी के सहारे लम्बे खर्च करते है और बडे गर्व के साथ कहते है कि 'तनखाह बीस (रुपए) से ही शुरू हुई थी, लेकिन उसी के भरोसे कौन रहता है। ऐसे ढोगी भद्र व्यक्तियो के प्रति जैनेन्द्र के - १ 'बतलाने वालो ने बताया कि गरीब के मुह पर, छाती, मुट्टियो और पेरो पर, बर्फ की हल्की-सी चादर चिपक गई थी। मानो दुनिया की बेहयाई घटाने के लिए प्रकृति ने शव के लिए सफेद और ठण्डे कफन का प्रबन्ध कर दिया था । --'हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कहानिया', सम्पा० गणेश पाण्डेय, प्र० स०८६ । २ 'शान्ताकारम् भुजगशयनम् पद्मनाभ सुरेसम् ।' -जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, पृ० स० ३७ । ३ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, पृ० स० ३४-३६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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