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________________ २०२ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन की अविकारणी माना है। उनके अनुसार दिगम्बरत्व का आदर्श भी धर्मोंन्मुख होने के कारण ही स्वीकार्य हो पाता है । वस्तुत जैनेन्द्र कला के धर्मयुक्त रूप को स्वीकार करते है, किन्तु सत्य यह है कि धर्म की ओट मे ही समाज मे नाना व्यभिचार होते रहते है । धार्मिक मठो के अधिष्ठाता, धर्मगुरु आदि धर्म के नाम पर समाज के वातावरण को दूषित करने में सहायक होते है । अतएव कला की धर्मोन्मुखता मे पवित्रता की भावना होना निश्चित नही है। धर्म से विमुख होकर कोई रचना कर सकता है, ऐसी स्थिति मे समाज द्वारा कलाकार की स्वतन्त्रता पर दबाव नही डाला जा सकता, किन्तु कलाकार की अमुक कृति को अमान्य ठहराया जा सकता है । इस प्रकार जैनेन्द्र कलाकार की स्वतन्त्रता को स्थायी रखते हुए भी समाज की मर्यादा की रक्षा पर विशेष बल देते है । समाज के नैतिक स्वास्थ्य की रक्षा के हेतु वे कवि अथवा लेखक की रचना की महता का स्वरूप निर्णय समाज पर ही छोड देते है। जैनेन्द्र की नैतिकता का मानदण्ड बहुत ही व्यापक दृष्टिकोण का परिचायक है। सामान्यत नैतिकता को स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मे सीमित रखा जाता है । किन्तु जैनेन्द्र इस रूढि से आगे बढ कर नैतिकता को जीवन के व्यापक परिप्रेक्ष्य मे स्वीकार करते है। उनकी दृष्टि मे पारिवारिक नैतिकता व्यक्ति को स्वार्थी बना देती है । सामाजिक और राष्ट्रीय नैतिकता ही व्यक्तित्व के विकास मे सहायक होती है । मर्यादा के घेरे मे आबद्ध व्यक्ति 'पर' की ओर उन्मुख नही हो पाता । 'अनन्तर' मे एक स्थान पर सकेत किया गया है कि समाज मे स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध को बहुत ही भयावह बना दिया है। 'अनन्तर' मे स्त्री के समग्र समर्पण से भयभीत 'प्रसाद' का मनोवैज्ञानिक मनोविश्लेषण बहुत ही स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत किया गया है । सहज और अनायास रूप से सम्पन्न कार्य को अनैतिक नही कहा जा सकता । 'अनन्तर' मे अपरा की सहजता के समक्ष प्रसाद का असहज होना ही उसके मन की दुर्बलता की ओर सकेत करता है। १ जैनेन्द्रकुमार 'कला और अश्लीलता', पृ० स० ७ । २ जैनेन्द्रकुमार 'कला और अश्लीलता', पृ० स० ७ । (क) 'स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध वह नही है, जिस पर नीति या धर्म को खडा होना चाहिए ।' जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ५, पृ० स० ४२ । (ख) 'प्रादमी आदमी के बीच जिसने शका पैदा कर दी है, उसे, नैतिकता कहते है। ---जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० ६१ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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