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________________ २०० जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन गर्ल्स तैयार करने के पक्ष मे है जो कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित करने मे समर्थ हो सकती है। इस प्रकार जैनेन्द्र पर सामाजिक मर्यादाप्रो को भग करने तथा भ्रष्टाचार को बढाने वाली सस्थानो को प्रोत्साहित करने का प्रारोपण लगाया जाता है। इस दृष्टि से तो जैनेन्द्र के सम्बन्ध मे हमारी पूर्वोक्त सारी परिकल्पना उल्टी होने लगती है। क्योकि 'वि-ज्ञान' कहानी में नारी की पीडा को मूल मे न लेकर उसके शरीर को ही मुख्याधार बनाया गया है । शरीर की साधना मे मन अपने को पूर्णत तटस्थ रखता है। किन्तु क्या तन और मन कभी अलग हो सकते है ? तन और मन के द्वैत के कारण ही काम और प्रेम की समस्या उत्पन्न होती है । यदि शरीर और मन एक-दूसरे के पूरक रहे तो अतत प्रेम ही विजयी होगा । तन उस पर हावी नहीं हो सकेगा। 'विज्ञान' मे मन के ब्रह्मचर्य पर बल दिया गया है। किन्तु सच्ची ब्रह्मचर्य-साधना एक को ग्रहण करने और दूसरे को त्यागने मे पूर्ण नही हो सकती। इस प्रकार समाज मे व्यभिचार फैलने की सम्भावना अधिक रहती है। इसलिए शुन्य ब्रह्मचर्य साधना व्यक्तित्व की क्षतिग्रस्तता की ही परिचायक है । इस दृष्टि से कालगर्ल्स की शरीर-साधना अतत कोई महत्व नही रखती। यह सत्य है कि प्राचीनकाल से ही नारी अपने रूपाकर्षण द्वारा राष्ट्रसेवा के हेतु प्रस्तुत रही है। रामायणकालीन मधुर भाषिणी वेश्याए प्राय सेना के साथ रहती थी, वही प्राय दूती का कार्य भी करती थी, किन्तु उस समय भी स्त्री के शरीर की ऐसी नाप-जोख भी होती थी, जैसी कि वैज्ञानिक वृति के प्रभाव के कारण 'वि-ज्ञान' कहानी मे दृष्टिगत होती है। प्रभावहीन काम की कल्पना अप्राकृतिक है । कालगर्ल्स के लिए जिस ब्रह्मचर्य की कल्पना की गई है, वह अत्यधिक दुष्कर है । स्त्री निरी वस्तु नही बन सकती, क्योकि उसके पास केवल शरीर ही नही है, हृदय भी है । यह सम्भव हो सकता है कि वह आत्मा की पिपासा को शान्त करने के लिए स्वय को किसी के समक्ष समर्पित कर दे। उपरोक्त विवेचन मे 'वि-ज्ञान' कहानी के मूल में निहित स्त्री की ब्रह्मचर्यसाधना द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित करने की योजना की निस्सारता ही मुखरित होती है और अन्त मे कहानी मे सेक्रेटरी द्वारा सत्य प्रकट हुए बिना नहीं रह पाता, क्योकि उसकी दृष्टि मे स्त्री केवल प्रयोजनवती ही नही होती, उसकी अर्थवत्ता प्रयोजन से परे है । सैक्रेटरी श्री एक्स० की अोर इगित करते हुए कहता है कि-'क्या आपके जीवन मे स्त्री प्रयोजन से अधिक बढकर कोई आई ही नही ?' इस प्रश्न के उत्तर मे श्री एक्स का यह कथन कि 'धन्यवाद, तुम जा सकते हो । क्योकि मे भी इस बारे मे चुप रहूगा । अतीत को काटकर मै
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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