SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र और समाज १६७ तृप्ति की भावना नही उत्पन्न हो सकती। जब वह शरीर से आत्मा की ओर उन्मुख होती है, तभी उसमे विरिक्त और सन्तुष्टि की भावना जाग्रत होती है। जैनेन्द्र की भोग मे योगदृष्टि खोजने का एकमात्र यही आधार है, जो उनकी प्रेम और काम सम्बन्धी विचारधारा को महिमान्वित करता है। उनकी दृष्टि मे.. 'अकेलेपन को लेकर व्यक्ति चलता है और उस भेट को किसी की गोद मे डालकर मानो सास और जीवन पा जाता है। यह मानवीय परस्परता अनिवार्य है। यह अकेलापन हो नही सकता कि वह दुकेलेपन को न ढूढे ।' जीवन मे काम की अनिवार्यता स्वीकार करते हुए जैनेन्द्र ने साहित्य मे भी उसकी अपेक्षा स्वीकार की है। उनकी दृष्टि मे 'अगर जीवन मे से सेक्स को बाहर निकाला जा सकता तो साहित्य, जीवन मर्म की शोध मे सृष्टि पाता है, जो जीवन के प्रतिफल मे सुन्दर, सुभग और समृद्ध करता है, वही उसको वहिष्करणीय कैसे मान सकता है ?' उनका साहित्य इसी सत्य की स्वीकृति मे फलित हुआ है । 'एक रात', 'रत्न प्रभा', 'निर्मम', 'राजीव' और 'भाभी' आदि कहानियो मे उन्होने स्त्री-पुरुष के नियक्तिक सम्बन्ध को ही स्वीकार किया है। वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार काम को वासना मानने मे घबडाने की जरूरत नही है । इसीलिए शब्द से अाशय इतना ही लेना चाहिए कि वहा ठहरना नही है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे देह रहते वासना से छुटकारा नही हो सकता। साराशत जैनेन्द्र की यह मान्यता है कि वासना या कामना हमको अन्य के प्रति उन्मुक्त करती है या अपने-आप मे इस अर्थ मे अभीष्ट ही है कि वह हमको अपने अह के व्रत से बाहर लाती और सम्बद्धता मे विस्तृत करती है। जैनेन्द्र उपरोक्त सम्बद्धता को व्यक्ति के हित के लिए आवश्यक मानते है । जैनेन्द्र के अनुसार 'पर' की स्वीकृति मे सामाजिकता स्वय ही गर्भित है। जेनेन्द्र ने काम को 'यज्ञ' के रूप मे स्वीकार किया है । 'काम मे व्यक्ति झपट कर भोग लेना चाहता है, यज्ञ मे कही बिछकर मिट जाना चाहता है।" भोग मे योग का भाव भोग के समस्त अभावो को दूर कर देता है। 'सुनीता' तथा 'एक रात' आदि उपन्यास तथा कहानियो मे आत्मतुष्टि के अनन्तर एकदूसरे से दूर रहने मे उन्हे शान्ति ही मिलती है। कामजन्य छटपटाहट समाप्त हो जाती है। इसलिए जैनेन्द्र ने कामचर्या को ब्रह्मचर्या के रूप में स्वीकार १ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' (अप्रकाशित)। २ साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार। . ३ जनेन्द्र कुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' (अप्रकाशित)। ४ जैनेन्द्र कुमार 'काम प्रेम और परिवार', पृ० १२३-२४ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy