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________________ जैनेन्द्र और समाज अथवा मुक्त प्रयोग नही हो सकता । उसके लिए अवलम्ब ही आवश्यकता है। मानवता इसी रूढ सस्था (परिवार) पर कायम है जो कि स्वय विवाह पर टिकी है। जैनेन्द्र ने विवाह को एक सामाजिक सस्कार माना है। स्त्री-पुरुष विवाह द्वारा ही परस्पर मिलते तथा सन्तानोत्पादन मे सहायक होते है । जैनेन्द्र के उपन्यास बौद्धिक युग का प्रतिनिधित्व करते है। उनमे व्यक्ति की अात्मिक समस्या और अन्तर्द्वन्द्व का विशेष रूप से विवेचन किया गया है । जनेन्द्र ने नाना सम्बन्धो से परे उन्हे मात्र स्त्री-पुरुष के रूप मे समझने की चेष्टा की है। उन्हाने स्त्री-पुरुष के अन्तर्मन की गहराई मे प्रवेश करके दलित भावो की सहजाभिव्यक्ति का प्रयास किया है। प्राचीन रूढिगत, पर्दा अादि प्रथानो पर उन्होने विचार नही किया है । युगानुरूप उनके पात्र प्रगतिशील तथा स्वच्छन्द विचारो के पोषक है। उनके अनुसार-'जीवन मूल्य तेजी से आर्थिक बनते जा रहे है। उस वेग मे जान पडता है कि परिवार और सम्मिलित परिवार का रूप छोटा हो जाने को बाध्य है। मालूम होता है कि यदि आर्थिक सभ्यता का दौरादौर रहा तो यह परिणाम घटित हुए बिना न रहेगा। लेकिन पारिवारिक इकाइया स्वय उस आर्थिक सभ्यता की बाढ को रोके हुए है। वस्तुत जैनेन्द्र विवाह और परिवार को अनिवार्य रूप से स्वीकार करते है । उनके उपन्यास और कहानियो का कथानक वैवाहिक और पारिवारिक-परिवेश मे ही फलित हुआ है। उनके दो नवीनतम उपन्यास 'मुक्ति-बोध' और 'अनन्तर' की कथा मे पारिवारिक सम्बन्धो के मध्य होने वाले मतभेद को भी विशेषत प्रश्रय मिला है। पिता-पुत्र, तथा बेटी-दामाद के मध्य घटित घटनाप्रो को पारिवारिक स्तर पर ही चित्रित किया गया है। अन्य प्रारम्भिक उपन्यासो मे परिवार तो है, किन्तु परिवार की घटनाप्रो अथवा समस्याओ की ओर कोई ध्यान नही दिया गया है । वहा बाह्य घटना से अधिक मानसिक तनाव दृष्टिगत होता है। ___ जैनेन्द्र के उपन्यासो मे परिवार की स्थिति बहुत ही निर्बल है। उन्होने परिवार को वैवाहिक सस्कार सम्पन्न करने का हेतु-मात्र ही माना है। घर मे बाहर के प्रवेश द्वारा उन्होने परिवार को स्वस्थ बनाने का प्रयास किया है। परिवार के दायित्व को विवाह मे ही सीमित नहीं किया जा सकता । विवाह के परे बच्चो की शिक्षा-दीक्षा आदि के हेतु भी परिवार का अस्तित्व अनिवार्य है। व्यक्तित्व का समुचित विकास परिवार के सौहार्द्रपूर्ण परिवेश मे ही सम्भव हो सकता है । जैनेन्द्र के उपन्यासो मे परिवार का कोई उच्च आदर्श दृष्टिगत । १ जैनेन्द्र 'प्रश्न और प्रश्न', १९६६, प्र० स०, पृ० स० १७४ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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