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________________ १७६ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन प्रेम के आकर्षण द्वारा ही अद्वैत की ओर उन्मुख होता है । स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध हो अथवा भूत प्रकृति का सब के मूल मे प्रेम तत्व ही प्रधान है । 'मे' 'तुम' का भेद द्वन्द्व का मूल है जब तक द्वैत है तब तक व्यक्ति स्वय से ही समाहित सत्यता का ज्ञान नही प्राप्त कर सकता । जब तक व्यक्ति निस्पह भाव से परस्पर मिलकर रहता है तब तक प्रगति उसके चरण चूमती है अन्यथा 'मै' 'तुम' अहिसा के प्रेम तक मार्ग की उपेक्षा करके आपस मे ही विनष्ट होता है । 'नारद का अर्ध्य' कहानी मे अहकारी मानव-प्राणी के मन मे चारो ओर लहराती खेती को देखकर लोभ उत्पन्न हो जाता है और प्रेम से मिलकर काम करने वाले दो साथी स्वार्थमय परिग्रही प्रवृत्ति के कारण दो पृथक-पृथक् अग बन जाते है। 'अपना', 'मेरा' का क्रीडा दोनो के भीतर बैठ जाता है और दोनो ने झोपडे मे आग लगाकर अपने सयुक्त प्रेम को स्वाहा कर दिया ।' 'इस प्रकार द्वैत भाव के जाग्रत होते ही हिसात्मक प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है। अतएव जीवन मे सत्य की प्राप्ति के लिए द्वन्द्व से प्रेम और शान्ति के मार्ग को अपनाना ही श्रेयष्कर है और वह मार्ग 'अद्वैत' अर्थात् अभेद दृष्टि की प्राप्ति पर ही सुलभ हो सकता है। 'तत्सत्' कहानी मे वन के विभिन्न पेड पोधे एक-दूसरे से प्रश्न करते है कि 'वन क्या है ?' किन्तु कोई भी नहीं समझ पाता । बास अपने को केवल बास का वृक्ष समझता है सब स्व तक ही सीमित है। वे यह नही जानते कि उनकी समष्टि ही वन है । जहा उनकी अहता (मै तू का भेद) विलुप्त हो जाता है । उस एकत्व मे परम सत्य का ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि वह है । 'सब कही है । सब कही है' 'हम नही है, वह है।' जैनेन्द्र के उपरोक्त विचारो पर गेस्टालवाद की पूर्ण छाप दृष्टिगत होती है। गेस्टाल सिद्धान्त के अनुसार अनेकता अथवा रेखाए सत्य नही है। सत्य समष्टि मे समाहित है । जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे गेस्टालवाद के समग्रता के सिद्धात की छाप दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र के अनुसार अखण्ड ईश्वर की प्राप्ति स्वत्व के विसर्जन द्वारा ही हो सकती है। जब तक व्यक्ति अह चेतन से तृप्त रहता है तब तक वह सत्य 'परमेश्वर आदमी की इसी अपनी-अपनी मस्यता मे पढकर खड-खड हो गया । और उन खण्डो को लेकर आदमियो मे अस्मिता की उतावली मचने लगी।' -'अनन्तर', पृ० ८५ । २ जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० १६५ । ३ 'दूर तक उसकी तू-तू, मैं-मैं सुनाई देती थी।' -जैनेन्द्र . 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० १६३ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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