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________________ जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार १६७ जैनेन्द्र ने राधा-कृष्ण के प्रदर्श को अपने साहित्य में स्थापित किया है । उनके साहित्य मे राधा - कृष्ण तथा गोपी प्रेम का आदर्श स्पष्टत परिलक्षित होता है । पुराणो मे यह कथा प्रचलित है कि गोपियो में राधा के प्रति ईर्ष्या होती है तथा उसमे स्वय और कृष्ण के मध्य द्वैत भाव विद्यमान होता है । कृष्ण की अलौकिक माया के कारण रास लीला करती हुई गोपिया इतनी कृष्णमय हो जाती है कि उन्हे अपने स्वत्व का बोध भी नही रह जाता और वे कृष्णमय हो जाती है । यही है जैनेन्द्र का आदर्श, जिसके कारण 'मैं' भाव 'पर' में समर्पित होकर इतना लीन हो जाता है कि द्वन्द्व का प्रश्न ही नही उठता । 'सुनीता' मे हरिप्रसन्न स्वय को अविजित समझता है, किन्तु यह उसका विभ्रम है । जब तक वह अपने अन्तर्मन के रहस्य को नही खोलता, तब तक वह अतृप्त और बेचैन रहता है। सुनीता का पूर्ण समर्पण हरिप्रसन्न के अतृप्त मन के द्वन्द्व को शान्त कर देता है ।" 'कल्याणी' ग्रह विसर्जन के अभाव मे कभी भी सहज नही हो पाती। उसे अपना प्रस्तित्व सदैव पीडित करता है । उसका जीवन बोझ बन जाता है । वह डा० असारी की विवाहिता अवश्य थी किन्तु पति के समक्ष वह पूर्ण समर्पण मे असमर्थ होती है, क्योकि पूर्ण समर्पण तो प्रेम मे ही सभव हो सकता है । वह परिस्थितिवश अपने प्रेमी से दूर हो जाती है । अतएव उसकी 'मै' भावना उसे विक्षिप्त किए रहती है । उनके मन मे अन्तर्द्वन्द्व बना रहता है, जिसके कारण वह किसी भी कार्य मे सहज नही हो पाती तथा परिष्कार करने का प्रयत्न करती है । उसकी पूजा-अर्चना मे भक्ति भाव से अधिक मानसिक द्वन्द्व की ही अभिव्यक्ति होती है । सामान्यत व्यक्ति अपने मन की सत्यता को व्यक्त करने असमर्थ होने के कारण उसे विभिन्न कार्यों मे प्रक्षेपित करता है । कल्याणी के समस्त क्रिया-कलाप उसके अहता की प्रभावग्रस्तता के ही परिणाम है । यदि वह प्रीमियर के समक्ष समर्पित हो सकती तो सम्भवत उसका मन इतना पीडित न होता और वह अपने गृहस्थ जीवन को भी व्यवस्थित बना लेती । 'त्यागपत्र' मे मृणाल का सामाजिक दृष्टि से जो अध पतन होता है, वह उसके आत्मविगलन का ही परिणाम है । वह स्वय को अधिक से अधिक कष्ट देकर १. 'सकुचन मे से ही अहकार का उदय है, भय की भीति है । मानो कुछ उसके भीतर से व्यग्य करता हुआ उठता है—क्यो तू अविजित है ? तू जयी है ? रे तू तो अधम है, अधर्म है । -- जेनेन्द्रकुमार 'सुनीता', पृ० १२६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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