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________________ १६० जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन अहता स्वय मे अपूर्ण है, इसलिए उसकी उपरोक्त प्रक्रिया सदैव चलती रहती है। जब अहता 'पर' मे समर्पण करके शून्यवत अर्थात् अहशून्य हो जाता है तभी उसे परम सत्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है। जैनेन्द्र को मौलिकता फायड ने अचेतन मन को अपराध की भावना अर्थात् पाप का मूल माना है। जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति अन्तस् प्रेरणा से कार्य करता है, किन्तु उनकी दृष्टि मे व्यक्ति के अन्तस मे पाप अथवा अपराध का भाव नही है । जैनेन्द्र के साहित्य की प्रमुख विशेषता यही है कि वे अहता के मर्मातिमर्म मे भगवत्ता का निवास मानते है । बाह्य और अत जगत् मे सदैव द्वन्द्व चलता रहता है। जैनेन्द्र के साहित्य का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि अन्त और बाह्य जगत के द्वन्द्व के कारण जो भावनाए अभिव्यक्ति प्राप्त करना चाहती है, वे अनैतिक अथवा अपराधमूलक नही है । अचेतन मन मे व्यक्ति की सुषुप्त चेतना निवास करती है। उसका निषेध नही किया जा सकता । जैनेन्द्र के अनुसार अन्त करण मे स्थिति भाव और प्रवृत्तिया हमारे व्यक्तित्व का ही अग है। उनके अनुसार अन्तस् भावो की अभिव्यक्ति का निषेध करना, व्यक्तित्व के समुचित विकास मे अवरोध उत्पन्न करना है। जैनेन्द्र के साहित्य मे चेतन और अचेतन मन का द्वन्द्व सतत् चलता रहता है । उनकी कहानियो उपन्यासो के पात्रो मे अधिकाशत अचेतन मन मे गहरा द्वन्द्व विद्यमान रहता है । जैनेन्द्र के साहित्य की समस्त कथावस्तु चेतन और अचेतन के द्वन्द्व स्वरूप ही विकासित होती है । जैनेन्द्र अह और काशस की उत्पति लाभ मानते है।' उनके साहित्य मे बाह्य और अचेतन अतरजगत मे जो द्वन्द्व दृष्टिगत होता है, वह चेतन और अचेतन के स्तर से ऊपर अहता और भगवत्ता का द्वन्द्व है। जैनेन्द्र के अनुसार अचेतन मे पाप नही है, वरन् भगवत् सत्ता का निवास है। चेतन अचेतन के द्वन्द्व मे पाप की अभिव्यक्ति न होकर अन्तर्भूत भगवत् भावना ही अभिव्यक्त होने के लिए बेचैन रहती है। जैनेन्द्र के विचारो मे उनकी आस्तिका पूर्णत छायी हुई है। यही कारण है कि वे फ्रायडीय अचेतन मन की परिकल्पना को स्वीकार करने में असमर्थ है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से चेतनअचेतन के द्वन्द्व मे सदैव चेतन मन अचेतन को दमित करने के लिए प्रयत्नशील रहता है और अचेतन मन चेतन स्तर पर आने के हेतु विकल रहता है । जैनेन्द्र साहित्य मे अहता और भगवत्ता का द्वन्द्व एक-दूसरे को अवदमित करने के हेतु १ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५४३ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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