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________________ जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार १५७ उत्पन्न होने पर सृष्टि की रचना होती है, किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार अहता और प्रात्मता के मिलन से सृष्टि ही नही होती, वरन् दोनो (स्व-पर) परस्पर मिलकर स्वत्वहीन तथा शून्यवत् होकर ब्रह्मोन्मुख हो जाते है। यही जैनेन्द्र की अहता का परम लक्ष्य है। परस्पर समर्पण मे ही अहता का तिरोभाव सभव होता है। ___ जैनेन्द्र के साहित्य मे अह और आत्मा का विवेचन अधिकाशतः उनके निबन्धो द्वारा ही हुआ है। उपन्यास तथा कहानियो मे उन्होने अपने आदर्शों को व्यावहारिक जीवन के धरातल पर प्रस्तुत किया है किन्तु उनमे मनोविज्ञान के प्रभाव के कारण कुछ अन्तर अवश्य आ गया है। जैनेन्द्र के साहित्य का सैद्धान्तिक पक्ष दर्शनशास्त्र से प्रभावित हो उसमे शाश्वत सत्यो की विशद् विवेचना की गई है तथा आत्मा के सन्दर्भ मे शकर की पारमार्थिक दृष्टि का सहारा लिया गया है। शकर ने अपने दर्शन को पारमार्थिक तथा व्यावहारिक धरातल पर प्रस्तुत किया है। पारलौकिक जीवन के हेतु उन्होने पारमार्थिक दृष्टि को अपनाया है, किन्तु लोकिक जीवन के क्षेत्र मे उन्होने व्यावहारिक दृष्टि स्वीकार की है। कोरी पारमार्थिकता जीवन को व्यवहार तथा नीति-शून्य बना देती है। उसमे भले-बुरे, सत-असत् का प्रश्न ही नही उठता। अतएव व्यावहारिकता की स्वीकृति अनिवार्य थी। इन आदर्शों के समकक्ष जब हम जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचारो को व्यावहारिक जीवन की पृष्ठभूमि मे देखते है तो हमे उनके विचारो की व्यावहारिकता तथा मनोवैज्ञानिकता स्पष्टत दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र के विचारो की विशिष्टता मनोवैज्ञानिक अथवा यथार्थ जीवन की घटनाओ मे पारमार्थिक सत्य का समावेश करने मे ही परिलक्षित होती है। जैनेन्द्र की अहं दृष्टि और मनोविज्ञान जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे दर्शन के साथ ही साथ मनोविज्ञान का बहुत अधिक प्रभाव लक्षित होता है। अह के अश रूप तथा 'मै' 'तुम' के भेद का सैद्धातिक रूप मनोविज्ञान के सहारे ही पूर्णाभिव्यक्ति मे समर्थ हुआ है। मनोविज्ञान व्यक्ति जीवन के रहस्योद्घाटन का एक मात्र साधन है । व्यक्ति क्या है ? उसके विचारो और आदर्शों का मूल उद्गम क्या है -? आदि बातो का ज्ञान व्यक्ति का मानसिक विश्लेषण करने पर ही ज्ञात होता है। साहित्य निरा सिद्धांतमय नही है। उसमे दर्शन और मनोविज्ञान का शास्त्रीय से इतर व्यावहारिक रूप ही ग्राह्य हो सकता है। जैनेन्द्र के पात्रो की आत्मा मे अध्यात्मिक सत्य अन्तनिष्ठ है तो व्यावहारिक जीवन मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष मे प्रस्तुत हुआ है।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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