SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र के प्रह सम्बन्धी विचार १५५ विच्छिन्न होकर अह के लिए खतरा है और जिसके कारण अह से बचने की आवश्यकता है । स्नेह से अह को मुक्त विस्तार मिलता है।' अहं और प्रात्मा जैनेन्द्र के साहित्य की ग्रह सबधी विवेचना करते हुए जैनेन्द्र की दृष्टि मे अह और आत्मा के अतर को समझना अनिवार्य है । प्राय दार्शनिक तथा व्यावहारिक क्षेत्र मे भ्रमवश अहता ओर अात्मता (आत्मा) को एक ही समझ लिया जाता है। ऐसी स्थिति मे शाश्वत सत्य और लौकिक सत्य के बीच अतर करना कठिन हो जाता है। जैनेन्द्र ने अहता और आत्मता मे स्पष्टत अन्तर व्यक्त किया है। उनकी दृष्टि मे अह शरीर इन्द्रिय और चेतना का समुच्चय है। वीरेन्द्रकुमार गुप्त ने जैनेन्द्र के ग्रह और आत्म सम्बन्धी भेद को बहुत ही स्पष्टरूप से व्यक्त किया है । उनके अनुसार जैनेन्द्र के अहता और आत्मता को प्रचचित लौकिक अथवा नैतिक अर्थ मे न लेकर वैज्ञानिक अर्थ मे ही लेना होगा। अहता अर्थात् अश का पूर्ण से भिन्न अस्तित्व और आत्मता अर्थात् प्रश का समग्न व्यक्तित्व । जैनेन्द्र व्यक्तिगत अस्तित्व के अह को सृष्टि और जीवन का केन्द्र मानते है क्योकि ग्रह की सत्ता के साथ ही सृष्टि और जीवन का प्रारम्भ होता है और उसके साथ ही उसके क्षय के साथ उसका विलय ।' आत्मा चेतन होते हुए भी निष्क्रिय है। अह आत्मा की चेतन शक्ति का सक्रिय रूप है । अह अथवा जीव अनन्त है। प्रत्येक जीव मे अह बोध होने के कारण 'स्व' 'पर' के पार्थक्य की चेतना होती है। शरीर अथवा जीव को प्रात्मा की संज्ञा नहीं दी जा सकती और न ही आत्मा को अह युक्त माना जा सकता है। मानव प्राणी मे स्व-पर भेद की पूर्ण चेतना होती है । जो मै हू वह वह नही है। वस्तुत अह सीमित भाव है, क्योकि प्रत्येक व्यक्ति अह बोध से जाग्रत होते ही पर से पृथक् हो जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार अह शरीरगत होते हुए भी शरीर में स्थिति किसी अवयव या अग से तद्गत नही है । अह वह है जो सुख-दु.ख को अपना करके उसे मानता है। 'वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार अह भाव जो व्यक्ति को अपने अस्तित्व का बोध कराने में समर्थ है । प्रह भाव अथवा मै की चेतना का स्रोत अथवा अवलम्ब आत्मा है। अह अनेकता, वैभिन्य और द्वन्द्व मूलक है। प्रात्मा ऐक्य और अद्वैत तथा १ जैनेन्द्र से विचार-विमर्श के अवसर पर उपलब्ध । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० २० । ३ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० २० । ४ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ०६३ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy