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________________ जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, धर्म-परम्परा एवं मृत्यु मृत्यु की सार्थकता जैनेन्द्र मृत्यु को सार्थक बनाना चाहते है । मौत की सत्यता अथवा उसकी चेतना व्यक्ति को भयभीत रखने के लिए नही है । मौत से भयभीत हुए व्यक्ति के हृदय से कर्म के प्रति भावना की शुद्धता समाप्त हो जाती है । यदि व्यक्ति मृत्यु की चेतना द्वारा स्वकेन्द्रित होकर अधिकाधिक सुख भोग का प्रयत्न करता है, ऐसी स्थिति मे जब व्यक्ति जीवन मे लिप्त होने लगता है तब मृत्यु का आगमन उसके लिए बहुत कष्टमय प्रतीत होता है । अपने स्वार्थ के लिए जीने वाला व्यक्ति अपनी कामनाओ और उनसे चिपटा रहता है । जैनेन्द्र के अनुसार जो व्यक्ति निर्भीक होकर कर्म करते है, मृत्यु का भय उनकी सद्वृत्ति मे बाधक नही बनता । वे न तो मृत्यु की ओर आकर्षित होते है और मौत के आने पर उसका सहर्ष आलिंगन करते है । उन्हे यम का स्पर्श वरदान के सदृश्य प्रतीत होता है । प्रपनी जीर्णता को मृत्यु के द्वारा पुन नवीनता मे परिवर्तित करने १३६ खिन्न नही होते, क्योकि वे वह मानते है कि मृत्यु के अनन्तर भी जीवन का क्रम चलेगा । अतएव जीवन सार्थकता और सापेक्षिक पूर्णता के हेतु मृत्यु मे विराम अनिवार्य है ।" मौत न हो तो जीवन स्वय मे रुकावट प्रतीत होने लगेगा | जैनेन्द्र के अनुसार मौत के द्वारा व्यक्ति के जीवन को रास्ता मिलता 1 ' दर्शन की राह " शीर्षक कहानी मे जैनेन्द्र ने जीवन और मृत्यु के गहन सत्य को उद्घाटित किया है। जीवन और मृत्यु के ऐसे कठोर सत्य को देखकर व्यक्ति सहसा स्तम्भित हो जाता है । जीवन मे शरीर को अत्यधिक महत्व देने तथा भोग-विलास का साधन समझने वाला व्यक्ति मौत के द्वारा 'पदार्थ' बन जाता है, किन्तु आश्चर्य यह है कि उसकी पदार्थता को देखकर भी शेष व्यक्ति सत्यता की ओर उन्मुख होने से बचाव करते है । गाडी से कुचला हुआ अधमरा व्यक्ति मृतक मे पदार्थवत् उठाकर डाल दिया जाता है और शेष दर्शक गाडी के लेट होने की चिन्ता मे ही व्यस्त रहते है । इस घटना को लेकर लेखक ने एक ऐसे व्यक्ति के जीवन की घटना का उल्लेख किया है, जो ऐसे हृदय - विदारक दृश्य को देखकर भी अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ भोग-विलास मे डूब जाना चाहता है, किन्तु आदर्शवादिनी पत्नी अपनी आत्महत्या के द्वारा १ 'जीवन का कुछ अर्थ ही नही अगर मौत उसके आगे फुलस्टाप की तरह बैठ जाए । इसलिए मृत्यु स्थाई वस्तु नही है ।' -- जैनेन्द्र की कहानिया, पृ० ६८ ( भय-मौत की कहानी ) २ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', पृ० १०४ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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