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________________ १३६ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन प्रेतयोनि और परलोक मे अन्तर है । पुनर्जन्म की परिकल्पना को सत्य मानने पर हमारे समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस लोक के अतिरिक्त क्या परलोक है ? परलोक से तात्पर्य स्वर्ग और नरक से है जहा मृत्यु के बाद कुछ दिन रहकर व्यक्ति अपने पुण्य अथवा पाप कर्मों का फल भोग कर पुन धरती पर जन्म लेता है। परलोक मे जाने वाले व्यक्ति की आत्मा भटकती नही है, वरन् कर्मफल भोगने पर उसे पुन जन्म लेना पडता है, किन्तु प्रेतयोनि में जाने वाले व्यक्ति की आत्मा भटकती रहती है वह न जीवन मे रहता है न मृत्यु मे। प्रेतयोनि मे जाने वाले व्यक्ति की मृत्यु सहज रूप मे नही होती। वे आत्मघात द्वारा जीवन की विषमताओ से मुक्ति पाना चाहते है। इस प्रकार की अकाल मौत मे आत्मा शरीर से छूट जाने पर भी पूर्णत पूर्वजन्म की आपत्तियो से मुक्त नही होती। ___जैनेन्द्र के साहित्य में इस तथ्य पर कोई प्रकाश नही डाला गया है कि परलोक क्या है ? तथापि उन्होने परलोक के अस्तित्व को स्वीकार अवश्य किया है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे परलोक की कल्पना के मूल मे व्यक्ति के हित की झलक देखने की चेष्टा की है । जैनेन्द्र परलोक की परिकल्पना अवश्य करते है, किन्तु इस सम्बन्ध मे वे कोई तर्क-वितर्क करना उपयुक्त नही समझते । उनकी दृष्टि मे परलोक की कल्पना ही व्यक्ति हितार्थ पर्याप्त है, वह क्या है, वह क्या नहीं है इसका कोई महत्व नही होता। उनके अनुसार अनुमान निर्भर जो मान्यताए है उनके बारे मे किसी आग्रह-विग्रह की आवश्यकता नही है। उनके विचार मे परलोक की परिकल्पना से व्यक्ति की कर्मशीलता को बल मिलता है। परलोक की परिकल्पना इस प्रेरणा के रूप मे सार्थक हो सकती है अन्यथा परलोक इस धरती से परे कोई विशिष्ट लोक नही है। ___ जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे स्वर्ग और नरक का भी उल्लेख किया है। स्वर्ग और नरक क्या है, यह स्पष्ट नही हो पाता, किन्तु यह अवश्य सत्य है कि स्वर्ग और नरक के कारण व्यक्ति अपने कर्मों की श्रेष्ठता के हेतु सदैव सजग रहता है। परलोक की पूजी धर्म है। 'धर्मवेत्ता ही स्वर्ग का अधिकारी होता है। जैनेन्द्र के साहित्य मे स्वर्ग और नरक का उल्लेख होते हुए भी उसे उस जगह से परे की स्थिति के रूप में स्वीकार नही किया गया है। उनके अनुसार स्वर्ग और नरक यहा इस धरती पर ही है।" मृत्यु जैनेन्द्र के साहित्य मे जन्म, पुनर्जन्म और कर्म-परम्परा का विवेचन करते १ जैनेन्द्र से विचार-विमर्श के अवसर पर उपलब्ध ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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