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________________ प्राक्कथन परिवर्तन सृष्टि का नियम है । सृष्टि के आदिकाल मे प्राणिमात्र का जीवन जैसा था, वैसा आज नही है । साहित्य जीवन की प्रतिकृति है। मानव जीवन की अस्फुट और अनकही बाते साहित्य मे शब्द और वाक्यो की लपेट मे जीवन को स्पन्दन और स्थायित्व प्रदान करती है। बासी हुए विचार और घिसी-पिटी मान्यताए वायव्य मे एक घुटन सी उत्पन्न कर देती है । उस घुटन से त्राण पाने के हेतु छुट-पुट झरोखो से आने वाली स्वच्छ वायु का प्रवेश अनिवार्य है। ___मानव जीवन मे जब कभी सहज गति से परिवर्तन होता है तो हमे उसका आभास भी नही मिलता, किन्तु कोई छोटी-सी घटना भी जीवन मे एक तूफान ला देती है । साहित्य में भी प्राय यही स्थिति देखी जाती है । प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध एक नवीन क्रान्तिकारी स्वर का उद्घोष करने का दायित्व भला कौन ले सकता है? व्यक्ति परिस्थिति को सदैव विनत भाव से स्वीकार करता रहा है । कहानी और किस्से की पुरानी परिपाटी, वर्णन और चमत्कार प्रधान थी। तिलस्मि और ऐय्यारी को प्रमुखता देने वाली रचनायो मे मानव जीवन की सत्यता को उद्घाटित करने की क्षमता नही थी। जिस कार्य को भारतेन्दुयुगीन उपन्यासकारो ने प्रारम्भ किया था, उसे प्रेमचन्द ने आगे बढाया और उपन्यासो को जीवनदायिनी शक्ति प्रदान की, जिससे व्यक्ति ने साहित्य के माध्यम से अपने ही जीवन की झाकी देखने का प्रयास किया । प्रेमचन्द एक सहज, सीधी लकीर पर चलते हुए साहित्य-जगत् मे अवतीर्ण हुए। उनके पात्र व उनकी भावाभिव्यक्ति की भाषा इतनी सुलझी और स्पष्ट थी कि उन्हे समझने मे हमे तनिक भी कठिनाई नही हुई और जनमानस सहज ही उस नवीनता के तल मे विभोर हो उठा। उसके समक्ष जीवन आदर्शरूप मे प्रस्तुत हुआ । प्रेमचन्द की रचनाओ को समझने के लिए पाठक को अपनी ओर से कोई जोड-तोड नही करनी पडी। मानव सदा से ही आदर्श प्रिय रहा है। 'वह क्या है ?" से ऊपर 'क्या होना चाहिए ?' के लिए प्रयत्नशील रहता है । मानव प्राणी प्रादर्श की निर्दोष प्रतिमा बनने मे सदैव अपनी निजता का
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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