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________________ १२६ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन अथवा उसकी सार्थकता निहित होती है अतएव व्यक्ति को कर्म मे ही न अटक कर अकर्म के भाव की गहराई मे भी प्रविष्ट होना चाहिए, अन्यथा कोरा कर्म निरर्थक है । 'जयवर्धन' मे जैनेन्द्र ने अन्यत्र एक स्थल पर 'अकर्म' की अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हुए बताया है। कर्म ठीक है, किन्तु वह अकर्म के साथ ही ठीक है नही तो बचाव और भरमाव होगा।' पुनर्जन्म _ जैनेन्द्र के साहित्य के सन्दर्भ मे उनकी भाग्यवादी नीति और कर्म-अकर्म के भावो की विवेचना करते हुए यह समस्या उत्पन्न होती है कि व्यक्ति के कर्मों का उसके जीवन से क्या सम्बन्ध है । यद्यपि यह सत्य है कि व्यक्ति अकर्म भाव को मन मे रखकर कर्म करता हुआ भी अनासक्त रहता है, किन्तु इस सत्य का भी निषेध नही किया जा सकता कि वह अकर्म अर्थात् कर्तृत्व भाव से हीन होकर कर्म करता रहता है। उसकी कर्मशीलता मे कोई अन्तर नही आता, केवल भावना मे ही अन्तर आता है और भावना की विशुद्धता के कारण कर्म और भी महान हो जाता है। ऐसी स्थिति मे प्रश्न उठता है कि विशुद्ध भावना से किए व्यक्ति के कर्मों का क्या होता है। उसने पूर्व जन्म मे जो निस्पृह भाव से कार्य किए होगे, उनका क्या प्रभाव दृष्टिगत हो रहा है और पुनर्जन्म मे क्या होगा? व्यक्ति शुभ कर्मों के द्वारा अपने जन्मो का सुधार कर सकता है कि नही ? विविध समस्याओ के समाधन हेतु जैनेन्द्र के पुनर्जन्म सम्बन्धी विचारो का विश्लेषण अनिवार्य है। सस्कार समष्टि को प्राप्त पुनर्जन्म मे जैनेन्द्र की पूर्ण आस्था है । उनके अनुसार जन्म और मृत्यु का चक्र अनन्त काल तक चलता रहता है। एक के बाद दूसरा क्रम समाप्त नही होता, अत मृत्यु के बाद भी जन्म का क्रम बना रहता है । मृत्यु मे जीवन का अवसान नही है । स्थूल शरीर बार-बार जन्मता और मरता है, किन्तु सूक्ष्म आत्मा अमर है। वह ईश्वर अर्थात् परमात्मा का अश है। परमात्मा ही एकमात्र पूर्ण शक्ति स्वरूप है, आत्मा उस अर्थ मे निरपेक्ष नही है, जिस रूप मे परमात्मा है । मृत्यु के अनन्तर आत्मतत्व ब्रह्म मे विलीन हो जाता है और उसके कर्म ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो जाते है। व्यक्ति अपने कर्मों के लिए स्वय उत्तरदायी नही होता वरन् मृत्यु के बाद उसके कर्मों का महत्व और बढ़ जाता है । व्यष्टि १ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', दिल्ली, १६५६, पृ० स० १२ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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