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________________ १२३ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन को प्रधान माना है । यथा -- 'भाग्य' फलति सर्वत्र न विधा न च पोरुषम् ।' किन्तु दूसरी ओर पौरुषवादियों का भी प्रभाव नही है, जो कि पुरुषार्थ के समक्ष भाग्य को निरर्थक मानते है । उनके अनुसार 'उद्योगी प्रयत्नशील मनुष्य को ही सोभाग्य लक्ष्मी वरण करती है । भाग्य की दुहाई तो कायर लोग दिया करते है ।" उपरोक्त भाग्यवादी और पुरुषार्थवादी विचारको का मन्तव्य एक पक्षीय है | अतिशय भाग्यवादिता के द्वारा व्यक्ति की अकर्मण्यता का बोध होता है तथा पुरुषार्थ से तात्पर्य यदि कर्मशीलता से है तो प्रत्येक कर्मशील व्यक्ति को समान रूप से परिश्रम करते हुए भी समान उपलब्धि क्यो नही होती ? कोई थोडे से श्रम से ऊपर उठता जाता है और कोई अथक परिश्रम करके भी निराश रहता है, वस्तुत इस वैभिन्य के मूल मे प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना भाग्य ही दृष्टिगत होता है । वेदान्त रत्न श्रीयुत हीरेन्द्रनाथ ने अपनी पुस्तक मे ‘याज्ञवत्क्य स्मृति' के द्वारा इस समस्या का समाधान प्रस्तुत किया है । उनके अनुसार 'जिस प्रकार एक पहिया लगा रहने से रथ नही चलता, इसी प्रकार देव की सहायता के बिना पौरुष काम नही देता । उनकी दृष्टि मे नाव मे पाल लगा देने से ही काम नही बन जाता, उसके अनुकूल हवा की भी जरूरत होती है । खेत मे बीज बो देने से ही कमल नही खडी हो जाती, बरसात के पानी से उस बीज की सचाई भी होनी चाहिए । अतएव देव और पौरुष दोनो की प्रावश्यकता है । भाग्यवादी का पौरुष को एकदम उडा देना ठीक नही है, पौरुषवादी का दैव को एकदम स्वीकार कर देना भी ठीक नही है । इस दृष्टि से देव का अर्थ किस्मत या भाग्य नही है, देव तो पिछले जन्म के किए हुए सुकृत या दुष्कृत से बना हुआ है ।" १ हीरेन्द्रनाथदत्त 'कर्मवाद और जन्मान्तर', पृ० स० १०६ । उद्योगिन पुरुषसहमुपेति लक्ष्मी दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति । २ दैव पुरुषकारे च कर्मसिद्धव्यवस्थिता । तत्र दैवभिव्यक्त पौरुष पौर्षदेहिकम् ॥३४७॥ केचिद्देवाद्धात्केचित्केचित्पुरुष कारत । सिद्धमन्त्यर्था मनुष्याणा तेषा योनिस्तु पौरुषम् ॥ ३४८ ॥ यथाह्येकेन चक्रेण रथस्य न गतिर्भवेत् । एव पुरुषकारेण रथस्य न गतिर्भवेत् । एव पुरुषकारेण बिना दैव न सिद्ध्यति ॥ ३४६॥ -- हीरेन्द्रनाथदत्त 'कर्मवाद और जन्मान्तर'
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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