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________________ १२० जैनेन्द्र का जीवन-दशन वह (प्रमोद) कहता है कि 'जो हुआ ठीक हुआ, ठीक इसलिए कि उसे अब किसी भी उपाय से बदला नही जा सकता।' जैनेन्द्र भाग्य और दु ख के मव्य व्यक्ति की परस्परता के हेतु बहुत सतर्क रहे है। उनके अनुसार व्यक्ति स्नेह के आदानप्रदान के द्वारा अतिशय पीडा को झेलता हा भी स्वर्ग का अधिकारी होता है। वस्तुत भाग्य मे जो होना है, उसे तो टाला नही जा सकता कि पारस्परिक प्रेम मे मनुष्य का वश है अतएव वह नही समाप्त होना चाहिए।' ____ विवर्त' मे भी भुवन मोहिनी रेल-दुर्घटना के लिए जितेन को दोषी नही ठहराती। उसका विश्वास हे कि 'होता होनहार है और सब काल कराता है । 'वस्तुत उसकी दृष्टि मे गाडी पलटने और इसके बहाने कुछ लोगो की मौत होने की घटना पूर्व निश्चित थी, अतएव उसके लिए किसी व्यक्ति को दोषी नही ठहराया जा सकता । पुनश्च मोहिनी जितेन को समझाती हुई कहती है-- 'जो हुआ, हो गया। होनहार कब टला है । 'सुखदा' मे सुखदा भी अपने पति को किसी कार्य के लिए दोष नही देती और कहती है--'उन्होने कुछ नहीं किया। सब भाग्य के प्राधीन हुआ है। वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति का समस्त सोच-विचार व्यर्थ सिद्ध होता है। यद्यपि जैनेन्द्र के पात्र सतत् कर्मशील है तथापि वे भाग्य से लडने मे अक्षम है, क्योकि 'सोच विचार कुछ काम नही पाता। दिमाग सोचता रहता है, होनहार होता रहता है । सोचा जाता है वह होता ही नही ।५ ___आस्थाहीन व्यक्ति कर्म करते हुए यह अनुभव करता है कि कर्ता मै ही हु, श्रेय मुझे है । जैनेन्द्र के अनुसार 'ग्रह' तथा पुरुषार्थ की दुहाई देने वाले व्यक्ति के जीवन की लचक समाप्त हो जाती है । ऐसे व्यक्ति अपनी आकाक्षा के पूर्ण न होने पर तथा प्रयत्न मे फल की झलक न देखकर निराश होकर टूट जाता है, उसमे पुन कम से कम युक्त होने का उत्साह नही रह जाता। ऐसे व्यक्ति का जीवन उस सूखे वृक्ष की भाति होता है जो अपनी कठोरता के कारण तनकर खडा रहता है, किन्तु तूफान का एक झोका उसे दो टूक कर देता है, किन्तु झूमता हुआ लचकदार पेड टूटता नही, वरन् झुक जाता है । यही कारण है १ स्नेह-क्या वह स्वय मे इतना पवित्र नही है कि स्वर्ग के द्वार उसके लिए खुल जाए।--जैनेन्द्रकुमार 'त्यागपत्र', पृ० स० ४६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'विवर्त', प्र० स०, १६५३, दिल्ली, पृ० स० २६ । ३ जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त, पृ० स० ३० ।। ४ जैनेन्द्र कुमार 'सुखदा', प्र०स०, दिल्ली, १६५२, पृ० स० २०४, १७७ । ५ जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', पृ० स० ६२।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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