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________________ दो शब्द हिन्दी उपन्यास-जगत् मे जैनेन्द्र का आविर्भाव अत्यन्त उल्लेखनीय घटना है। जैनेन्द्र से पूर्व प्रेमचन्द साहित्य-जगत् को एक नवीन चेतना तथा जीवनदायिनी शक्ति प्रदान कर चुके थे, किन्तु प्रेमचन्द अपने युग की समस्याग्रो को सुलझाने की चेष्टा मे समसामयिकता मे ही सीमित रह गए । जीवन से चिपके हुए कलाकार होने के कारण वे जीवन के स्थूल विस्तार को तो माप सके, किन्तु मानव-मन की अतल गहराइयो, मानव-जीवन की सूक्ष्म परिस्थितियो के मनोवैज्ञानिक आधार की ओर वे अधिक ध्यान न दे सके । इसके विपरीत जैनेन्द्र की चेष्टा बाह्य परिवेश से अधिक आत्मोन्मुखता की ओर दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र ने जीवन की समस्याओ को न लेकर उसके उत्स को ही पकडने का प्रयत्न किया है। उन्होने व्यक्ति के नित्यप्रति के जीवन से अधिक उसमे निहित सत्य की ओर दृष्टिपात किया है। उनकी दृष्टि मनोवैज्ञानिक है। उन्होने मानव-चेतना के रहस्यो को अपनी अनुभूति की पीठिका पर अभिव्यजित किया है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में जो बौद्धिकता रखी है और जीवन की परम्परागत नैतिक मान्यताप्रो पर जो प्रश्नसूचक चिह्न लगाया है वह उन्हे हिन्दी कथा-साहित्य मे एक नये युग-प्रवर्तक के रूप मे, प्रेमचन्द से एक कदम आगे स्थापित करता है। जैनेन्द्र के साहित्य में मनोविज्ञान तथा दर्शन का सामजस्य स्पष्टत दृष्टिगत होता है। वे साहित्यकार होने के साथ-साथ दार्शनिक भी है। एक अोर मनोविज्ञान द्वारा उन्होने मानव-वृत्ति के सत्यो का उद्घाटन किया है, दूसरी ओर दर्शन के द्वारा आत्मगत सत्यो की अभिव्यक्ति की है और व्यक्ति को आत्ममन्थन की ओर उन्मुख किया है। दार्शनिकता के कारण जैनेन्द्र का साहित्य अत्यधिक गूढ हो गया है, किन्तु उसकी गूढता ही उसका सार है, क्योकि उसमे ऋजुता न होकर गहराई का आभास मिलता है। जैनेन्द्र के साहित्य का सत्य आत्म-विसर्जन तथा ऐक्यानुभूति मे निहित है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे अद्वैत अन्तिम सत्य है, वह चर्चा का विषय नही बनता, किन्तु जीवन की भाषा द्वैत मे है । दो को लेकर ही सृष्टि चलती है। जैनेन्द्र ने मानव-जीवन के सश्लिष्ट रूप की अभिव्यक्ति का प्रयास किया है। उनके अनुसार धर्म, समाज, अर्थ आदि व्यक्ति की सापेक्षता मे ही सार्थक है । उन्होने मानव-जीवन के शाश्वत प्रश्नो पर विचार किया है। उनका सम्पूर्ण साहित्य उनकी
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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