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________________ ११२ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन अधर्म है। धर्म का भाव आत्मा के पोषण मे ही फलित होता है। वस्तुत जीवन मे जिन कार्यों से प्रात्मतुष्टि और आनन्द की वृद्धि होती हे वही धर्म है। आत्मानन्द की प्राप्ति के लिए 'स्व' का विसर्जन अनिवार्य है। 'स्व' स्वार्थ से युक्त होकर 'पर' का निषेधक अथवा शोषक बन जाता है। धर्म आत्मा के विस्तार मे है। 'स्व' जितना अधिक 'पर' की ओर उन्मुख होता है उतनी ही उसमे त्याग और समर्पण की भावना जाग्रत होती है । चित्त के सिकुडने अर्थात् स्वकेन्द्रित होने से स्वार्थी वृत्ति ही विकसित होती है । 'स्वार्थ' धर्म का शत्रु है। वर्म का मूल परहित मे समाहित होना चाहिए। जैनेन्द्र की दृष्टि मे मोक्ष मानव जीवन मे धर्म का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति करना है। भारतीय दर्शन मे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चतुष्टय द्वारा जीवन की पूर्णता की ओर इगित किया है। वर्म जीवन का आधार है, नीव है, जिस पर जीवन रूपी मजिल आधारित है । मानव जीवन सतत यात्रा है। मोक्ष की प्राप्ति ही मजिल है। भारतीय दार्शनिक ने मोक्ष प्राप्ति पर अत्यधिक बल दिया है । मोक्ष जीवन की अन्तिम पहुच है, जहा पहुच कर जीवन के सारे कर्म बधन टूट जाते है और वह कर्मशून्य अर्थात् निस्पृह हो जाता है। अद्वैतवादी शकर की मुक्ति का स्वरूप एक ही महावाक्य मे समाहित है। 'अहम् ब्रह्मास्मि, जीव बसव वापर' जैनधर्मी कैवल्य की प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानते है। जैन धर्म मे जीव और पुद्गल के सयोग को ही बन्धन माना गया है। अत जीव का पुद्गल से वियोग ही मोक्ष माना गया है। पुद्गल से वियोग तभी हो सकता है, जब नये पुद्गल का आश्रय बद हो और जो जीव मे पहले से ही प्रविष्ट है वह जीर्ण हो जाय । पहले को सवर और दूसरे को निर्जरा कहते है। विनोबा भावे ने अपनी पुस्तक 'विचार पोथी' मे मोक्ष के सम्बन्ध मे कहा है--'आत्मदर्शन मोक्ष का आस्वाद लेना है। परमात्म दर्शन मोक्ष का पेट भर भोजन करना है । पहली बात का अनुभव इसी देह मे हो सकता है, दूसरी का देहात के अनन्तर।' उपरोक्त विभिन्न दार्शनिको के सदृश्य जैनेन्द्र ने भी ब्रह्म जीव प्रादि तात्विक विषयो का विवेचन करने के साथ 'मोक्ष' अथवा मुक्ति पर भी अपने विचार व्यक्त किए है। किन्तु जैनेन्द्र के तात्विक विचार कोरी दार्शनिकता से पोषक न होकर व्यवहार सम्मत है। उन्होने जीवन की यथार्थता से विमुख होकर किन्ही १ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', पृ० १३१ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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