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________________ जोन्म प्रोर गर्म ६७ के प्रचार का गाग्रह नही होता । आग्रह बाह्य जगत् की वस्तु है, किन्तु वैज्ञानिक विज्ञापन गे दूर अपनी प्रयोग-शाला मे कार्यरत रहता है। उसकी नवीन खोजो का अनायाम ही प्रचार हो जाता है, उसे पयास नही करना पडता । जैनेन्द्र इसी तथ्य को रष्टि में लेकर धर्म को भी सहज बनाना चाहते है, उसके प्रचार मे उनकी प्रारया नही। उनके अनुसार प्रास्था तो कर्म की धर्ममयता मे होनी चाहिए, पगार में नही, जैनेन्द्र ने एक वैज्ञानिक के सदृश्य 'काश्मीर की यात्रा' में अपने जीवन को एक प्रयोग माना है। जैनेन्द्र के अनुसार वैज्ञानिक यदि मानव-धर्म की ओर खिचेगा तो एक ऐसे विश्वास प्रोर आस्था का जन्म होगा जो सामान्य प्रचलित अर्थ से भिन्न होगी। विश्वारा निश्चित रूप से वह है जो सौ फीसदी तर्काश्रित नही है। वैज्ञानिक की समस्त प्रगति उसके अन्तर में निहित अटूट आस्था का ही परिणाम है। विज्ञान नितान्त बुद्धि-सम्मत होकर मानव जीवन की उपयोगिता से तटस्थ हो जाता है। विज्ञान की मार्थकता आस्थापरक होने मे है । प्राय ऐसे उदाहरण देखने को मिलते है, जब कि वैज्ञानिक अपनी प्रगति की चरमावस्था मे मत हात हा देने जाते है। जैनेन्द्र के अनुसार धर्म आस्था का विषय है, किन्तु कभी-भी उसमें इतना तर्क-वितर्क उत्पन्न हो जाता है कि धर्म की मूल सवेदना पाट हो जाती है। विज्ञान का तर्क बुद्धि सम्मत और सत्य पर आधारित होता हे । अन्यात्मवादियो की ईश्वर के अस्तित्व के सम्बन्ध मे विविध धारणाए प्रचलित है। जैनेन्द्र ने इस सत्य को अपनी एक कहानी मे कोयले मे आग के अस्तित्व के आधार पर दर्शाया है । तत्वज्ञानी कभी भी अपने सत्य का पूर्ण प्रतिपादन किए बिना गन्तुष्ट नही हो सकता। इस प्रयास मे विवादियो मे मार-पीट तक की भी स्थिति या जाती है, किन्तु कोई भी हार मानने को तैयार नही होता । जैनेन्द्र धर्म में बाल की खाल निकालने के पक्ष मे नही है। उनके अनुसार 'मुक्का मुक्की द्वारा तत्व निर्णय ही काल-ज्ञापन का एक उपाय नही है, अन्य भी अनेक कर्म है। जीवन उनसे भी चलता है, बल्कि बहस की जगह उन कामो को करना कुछ कहला सकता है।" जैनेन्द्र की धार्मिक वैज्ञानिकता १ जैनेन्द्र 'काश्मीर की वह यात्रा', पृ० ३६ । २ 'बुद्धि जिसको विश्वास का सहारा नही, बव्या होती है। यह विश्वास बुद्धि का पूरक होता है । वह बुद्धि को नही, केवल उसके दभ का नष्ट करता है और इस तरह केवल उसे नम्रता, नाजुकता ग्रहणशीलता देता है। जैनन्द्र ‘समय और हम' पृ० ११७ । ३ 'समाप्ति', पृ० ३०४-३०६ । ४. जैनेन्द्रकुमार . 'समाप्ति', पृ० ३०५ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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