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________________ जैनेन्द्र और धर्म भेद स्वाभाविक है, किन्तु अपने ही मत का आग्रह व्यक्ति अथवा सम्प्रदाय के अह का सूचक है। ऐसी स्थिति में उसका धर्म रूप विनष्ट हो जाता है। धर्म तो व्यक्ति के अह को गला देता है, उसे अत्यधिक विनम्र बना देता है। उसमे द्वन्द का प्रश्न ही नहीं उठता।' जेनेन्द्र के अनुसार धर्म के सम्प्रदायगत होने की भी कुछ मान्यताए है, उनकी पूर्ति में ही धर्म के सम्प्रदायगत होने की सार्थकता है, अन्यथा वह समाज में विषमता ओर सघर्ष उत्पन्न करने मे ही सहायक होता है । कोई भी सम्प्रदाय धर्मगत होकर अवहेलनीय नही हो सकता, किन्तु आज धर्मतत्व विलीन होता जा रहा है। केवल निर्जीव शरीर के रूप मे सम्प्रदाय ही प्रचलित है। सम्प्रदाय सत्य की प्राप्ति का साधन है, उसे ही सत्य मानकर हम सत्य से विमुक्त हो जाते है । जैनेन्द्र के अनुसार सम्प्रदाय धर्म को घेरते नही फैलाते है। सत्य का जिज्ञासु व्यक्ति उत्तरोत्तर मौलिक शरीर के बन्धनो से मुक्त होता हुआ आत्मतत्व के रहस्य को जानने मे रत रहता है, भौतिकता उसे घेर नही पाती। उसी प्रकार सच्चा सम्प्रदाय मतवाद के द्वन्द्वो से परे मानव-हित के हेतु स्वय को बन्धन-मुक्त करता जाता है । उसका जीवन मानव सेवा मे ही समर्पित होता है। ___ वस्तुत जैनेन्द्र ने धर्म के सम्प्रदायगत रूप को स्पष्टत स्वीकार किया है। किन्तु उनकी आस्था मानव-हित मे ही केन्द्रित है। धर्म का गुण मैत्री उत्पन्न करता है । जैनेन्द्र के अनुसार 'धर्म वह है जिसे मानकर बुद्धि मे नम्रता आती है और विद्रोह नही रहता । धार्मिक सम्प्रदायो की यदि धर्म के प्रति आस्था नही है तो वे व्यर्थ है । जैनेन्द्र के अनुसार बाहृयाडम्बर से अधिक धर्म के प्रति आत्मिक श्रद्धा होनी चाहिए। आज लोगो की धर्म पर से श्रद्धा उठ गई है। मानव जीवन अर्थ और काममय ही हो गया है । यद्यपि अर्थ और काम भी जीवन के पुरुषार्थ है किन्तु उनका भी धर्ममय होना आवश्यक है। धर्म और विज्ञान आधुनिक युग विज्ञान का युग है । सामान्यत लोगो मे विज्ञान के सम्बन्ध मे एक भयावह दृष्टि व्याप्त है। उनके अनुसार वैज्ञानिक आविष्कारो १ 'धर्म जिसे गला देता है, मत उसी को फुलाने लगा।' -जैनेन्द्र . 'अनन्तर', पृ० ८५। २ जैनेन्द्रकुमार · 'मन्थन', पृ० १७१ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', पृ० १३१ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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