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________________ ( ८७ ) अन्तिम विचार मैंने बुढापे में जैनमत की पुस्तकों का अवलोकन किया । मुझ से कहा गया- जैनधर्म के दशलक्षण धर्म पर अपनी सम्मति प्रगट करो । जो मेरे जी में जाया कह सुनाया । निष्पक्ष होकर अपने भाव को प्रगट कर दिया । इस में न कही वनावट है, न लगाव लपेट है-जो बात है स्पष्ट है । क्या कहूँ मुझे न अवकाश है-न अव शरीर लिखने के योग्य है इस के अतिरिक्त में रात दिन राधास्वामी सत्सग के काम में लगा रहता हूँ । धाम, मंदिर, संस्कृत पाठशाता, हाईस्कूल बाजार इत्यादि के प्रवन्ध में रहता हूं । नहीं तो में उपनिपदों और वेदों तक में दिखा देता कि उन में कहां तक जैन मत का भाव लिया गया है । मुझे छाव जाकर प्रतीत होने लगा है कि जैनमत बहुत प्राचीन है । निग्रंथ धोने से उस की शिक्षा 'इल्म सीमा' और रहस्य रूप में चली श्राई है । यह स्मरण रहे। मैं जैनी नहीं हूँ न उस समुदाय से मुझे कभी सम्बन्ध था और न छाय है । परन्तु स्वाध्याय करने पर विदित हो गया कि संस्कृत शब्दों के यदि रूढ़ि अर्थ से मिड किया जाय तो जैनमत के सिद्धान्त हिन्दुयों और चौडा के प्रथों में बहुतायत के साथ मिलेंगे ।
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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