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________________ ( ७६ ) जोवको शुद्ध और निर्मल कर लेना है, जो पाकिश्चन्य से संभव है। काम करने का है कहने या बातों में पढ़कर लड़ने का नहीं है। यह चौथा भेद है जो जैनमत और वेदान्त (५) वेदान्त और जैनी दोनो ही निर्वाण को समझते मानते हैं। निर्वाण फक कर दुभा देने को कहते हैं । जैनियों का मन्तव्य तो स्पष्ट है । जीवसे अजीवपने को फंक कर घुझा देनो और जीवको श्रसंग कर लेना है । वेदान्ती, जव अपने सिद्धान्त अनुसार जगत्को अनहुआ और मिथ्या मानती है, तो यह क्या फकेगा ? और क्या फंकर पुसावेगा ? उसे तो कुछ करना ही नहीं। हां, और कुछ चाहे वह करे यह न करें। चात बनाता फिरता है जो उसे उसके सिद्धान्त से गिरा देता है। यह पांचवां भेद है जो जैन और वेदान्त में है। पाकिञ्चन् का अर्थ स्पष्ट रीति से पता दिया गया । व्यौहार में अपरिग्रह को पाकिञ्चन कहते हैं। यह भी सही है। श्रप दोहे सुनोः "भीन्न माग व्व्यम फरे, सो फिश्चित नहीं साथ । भोरमे पजे कल्पना, गाढ़े अधिक उपाष ॥ १॥ पुग शिक्षक ना मिला, यमा भिमागे साध । साथ, इसे न तुम कहो, उसको राग असाप ॥ ३ ॥
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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