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________________ (ग) ध्येय कारनन्य मार्ग है। निश्चय नय से यह मार्ग शुद्ध प्रात्म यान यास्वानुभव है,जहां निज जीवत्व का यथार्थ श्रद्धान, शान न चर्या नीना का अमित मिलाप है-वास्तव में यही वह अनि है जो 'मनीव को जलाती है उसे भस्म करके जोव को छुडाती है, यही वह मसाला है जा जीव को पवित करता है, यही वह अमृत हे जिल का पान जीव को अतीन्द्रिय सुख अनुभव कराता है, यहां वास्तव अहिंसक माय है यही समता भाव है, जहां किसी पर राग है न द्वेष है, यही विश्व प्रेम हे यरी जागृत अवस्था है । सायु का सर्व देश गृहस्थ का एक देश व्यवहार चरित्र भी इसी ध्येय पर बालवित है। उत्तम नमादि दश धर्म का सम्यक्त्राचरण साधु महात्मा करते हे नथा जो ऐसा प्राचरण करते हैं वे हीसाधु हे.इस जीव के वैरी क्रोध, मान, माया, लोम है-ये ही प्रात्मा के गुणों के घातक है। साधु भनेक प्रकार शत्रुओं से पाट दिये जाने पर भी मोध का विकार नहीं लाते अर्थात् उत्तम क्षमा की भूमि में बैठे हुए परम सहनशील रहते है। यदि किसी प्रमत्त साधुकं भावों में किंचित् कोध विकार माजावे तो भी वह पानी में लकीर की तरह तुरन्त मिट जाता है. सातु के वचन - काय की प्रवृत्ति क्रोध कप नही होने पाती है। इसी तरह अपमान के धोने पर भी व अनेक गुणसम्पन्न होने पर भी मान विकार का जलाकर उत्तम मार्दव पालते है। शरीर को भोजन पान के प्रभाव में अनेक कप पड़ने पर भी मायाचार से श निमागे
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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