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________________ { ५3 ) [११] शौच शौच संस्कृत शुचि' (शुदि) ले निकला है। इस का अर्थ शृद्धिदी है. और शुद्धि त तात्पर्य विशेष शुद्ध गवना से है। शुद्धि और लद बातों के समान तीन तरह की है। व्योहार की शुद्धि, प्रतिनाधिकद्धि और पारमार्थिक शुद्धि और इन तीनों का परस्पर सम्बन्ध है। न्यौहार और परनार्थ उत्त समय तक सृद्धि नहीं होते जब तक प्रतिभाप में गुद्धि न हो। प्रतिनाय विचार त्यात और भाषको कहते हैं और यह सतसंग स्वाध्याय एवं शिक्षा से प्राप्त होता है। मनुष्य जिल कुल में उत्पन्न होता है, जैसे समाज में रहता है, जैसी संगत होती है और जैसी शिक्षा पाता है अथवा उल ३ ई गिर्द जैसी घटनाएं हुमा करती हैं वैसे ही उसने विचार भी होते हैं। यह बनाई हुई बात है। साथ ही उस माहार भी बहुत कुछ अपना प्रभाव रखता है जो जैसा अन्न खाता है उस का मन सा बनता है। और जब मन जैसान्त गया उस में विचार भी वैले उत्पन्न होते हैं। इस अभिप्राय से जैन धर्म ने खाने पीने के विषय पर भी बहुत कुछ दृष्टि पतली है। जो पयाज़ लहसुन या गन्हें खाता है वह तामसिक और तामसिक बुद्धिवाता होगा । जो मांत मदेरा का श्राहार
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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