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________________ ( ४२ ) हूं । बन्धनवाले को तो दुःख होता ही है । मुक्त को क्यों दुःख होने लगा ?" राजा-मैं कैसे बन्धन में हूं और तू कैसे मुक्त है ?" साधु-तेरे पास माया (अजीवपने का सामान) वन है। मेरे पास कुछ भी नहीं है । इस लिये बद्ध है और मैं मुक्त हूं।" राजा-"क्या मैं भी राज काज छोड़ कर तेरे जैसा साधु हो जाऊँ? ' साधु-"मैं यह नहीं कहता और न इस की श्रावश्यकता है। मन से त्याग कर-आर्जव धर्म का पालन कर और तुझे भी सुख मिलने लगेगा। भरत चक्रवर्ती राज काज को संभालते हुये भी परम भैरागी थे और सुखी थे।" राजा ने समझा यह कंगाल है, इसलिए डीग मार रहा है। उसने उसके लिए एक महल खाली करा दिया नौकर चाफर दिये-तामम सामग्री इकट्ठा कर दी । साधु उसमें रहने लगा। कई दिन बीत गए । राजा देखने आया । साधु वैसाही प्रसन्नचित्तथा, जैसा पहिले था। राजाने साधु से कहा-"महल में कोई और प्राकार रहना चाहता है ।" साधु उठ खड़ा हुआ और वैसे ही सादगी से हंसता हुआ अपनी राह चला गया। राजा को फिर नाश्चर्य हुआ। इसने समझा था कि महन के त्याग से इसे दुःख होगा, किन्तु लाधु में दुःख कैसा ? वह तो किसी औरही प्रकार का मजुज्य था।
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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