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________________ ( २२ ) [ ७ ] नमा क्षमा संस्कृत धातु 'क्ष' (संतार का बरवाद करना) और 'म (मन ) से निकला है । मनसे किसी के अपराध को भूल जाना, दूसरों के अनुचित व्यवहार की ओर से दृष्टि को रोक कर उसकी ओर ध्यान न देना और मनसे अनुराग और प्रेम रखना क्षमा कहलाता है। उत्तम क्षमा क्रोधके उपशम अथवा क्षय से होती है। जब तक मनमें लेशमात्र भी क्रोध अंग है: तब तक क्षमा नहीं पाती। क्रोध के क्षय का नाम ही तमा है। इसके अतिरिक्त और कोई नहीं है। क्षमा से दूसरे मारे जाते है, परन्तु जो प्राणी क्रोध करता है वह अपना आप सर्वनाश करता है। क्रोध करने से मन, इन्द्रियां, नस, नाड़ीइत्यादि अपने २ स्थान को त्याग देती हैं। समता की हानि होती है। और जब शरीर के अन्तरभाग में क्रोध की अग्नि प्रचण्ड हो जाती है तो मनुष्य कम्पायमान हो जाता है। एडी से लेकर चोटी तक उसके अन्दर भाग लग जाती है, उसके प्रज्वलित होने से रक्त, मांस, मज्जा, धातु गर्म चूल्हे पर चढ़ी हुई हांडी की तरह खोलने और उवलने लगते हैं। आंखें लाल भभूका बन जाती है। और यदि कहीं जिह्वां खुल गई तो फिर उसके द्वार से ज्वाला फूट निकलती हैरोमांच हो जाते हैं। रोम-रोम से गरम भाप निकलने लगती है
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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