SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीरनुप से भो लडे सो तो वीर न.होप : माया त मलि फरे दौर काय सोय ॥ वीर तसा मान ग मारे पांच गनीम : मेम नगाया पनी को साथी बढी फाहोम ॥ जिस जीवाजीय का पना हमने सांध्यदर्शन की परिभाषा पुक्र और प्रति में दिखाया है और जो वशिष्ठ सूत्र में कहता है कि सिवाय पुमय और प्रकृति के खेल के इस जगत का रचन घाला कोई फल्पित अधया सत् ईश्वर सिद्ध नहीं होना। “ईश्वराऽसिद्धे।" वही पता हम नहा शब्द की परिभाषा में देते है। ब्रह्म परिमापा दो शब्दों से बनी हुई है। 'वह (बढ़ना) 'मनन' (सोचना । अथवा जड़ और चेतन । चेतन क्या करता हैं। जड़ पदार्थ पर हाथ मारता है । जैसे पुरुष स्त्री पर हाथ डालते हुए नीचे गिरा देता है शोर उसे अपने वशीभून करके आधीन बना लेता है। यहांपर जिसका जी चाहे सोचे विचारे कि यह जगत् प्रात्रमय है या नही हे ? यह जगत् जीवाजीय है या नही है ? यह जगत् जानमय है या नहीं है ? मैं मानता हैं कि जैनियों के धर्म में बहुतसी बाहरी फलिन बात आगई है, परन्तु विचारशील मनुष्यों की रष्टि में केवल वही प्राचीनतम श्रीर प्राकृतिक धर्म ठहराता है। ब्रह्म परिमापक अर्थ कोई लाख अगड़म बगड़म और अन्डयन्द्र करे, उसे स्वतंत्रता है। और वह साहस फरक पर्थ का अनर्थ कर रहे है, परन्तु परिमापा स्पष्ट है। कोप देखो, धातु देखो, शन्द की जड़ को देखो ०२
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy